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________________ श्रावकाचार-संबद्ध इति पूजाफलं.काले निःश्रेयसपलप्रदम् । प्रोक्तं निशामयेदानी भव्य ! पूजकलक्षणम् ॥१४० नित्यपूजाविधायी यः पूजकः स हि कथ्यते । द्वितीयः पूजकाचार्यः प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥१४१ ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलवतान्वितः । सत्यशौचढाचारो हिंसाद्यवतदूरगः ॥१४२ जात्या कुलेन पूतात्मा शुचिर्बन्धुसुहृज्जनः । गुरूपदिष्टमन्त्रोण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥१४३ इदानीं पूजकाचार्यलक्षणं प्रतिपाद्यते । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो नानालक्षणलक्षितः ॥१४४ कुलजात्यादिसंशुद्धः सहष्टिर्देशसंयमी। वेत्ता जिनागमस्याऽनालस्यः श्रुतबहुश्रुतः ॥१४५ ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गम्भीरो विनयान्वितः । शौचाऽचमनसोत्साहो दानवान्कर्मकर्मठः ॥१४६ साङ्गोपाङ्गयुतः शुद्धो लक्ष्यलक्षणवित्सुधीः । स्वदारी ब्रह्मचारी वा नोरोगः सक्रियारतः ॥१४७ वारिमन्त्रवतस्नातःप्रोषधव्रतधारकः । महाभिमानी मौनी च त्रिसन्ध्यं देववन्दकः ॥१४८ श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षाशिक्षागुणान्वितः । क्रियाषोडशभिः पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः ॥१४९ न होनाङ्गो नाऽधिकाङ्गोन प्रलम्बो न वामनः । न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नाऽतिबालकः ॥१५० . न क्रोधादिकषायाढयो नाऽर्थार्थी व्यसनी न च । नान्त्यास्त्रयो न तावाद्यौ श्रावकेषु न संयमी ॥१५१ ईदृग्दोषभृदाचार्यः प्रतिष्टां कुरुतेऽत्र चेत् । तदा राष्ट्र पुरं राज्यं राजादिः प्रलयं व्रजेत् ॥१५२ पशु जाति जन्तुने भी ऐसा अनुपम फल पाया तो जो साक्षाज्जिन देवका भक्तिपूर्वक पूजन करेंगे वे भव्य पुरुष ऐसे फलको नहीं पावेंगे क्या? अवश्य पावेंगे ॥१३९।। भगवान् गौतम स्वामी बोलेहे राजन् । समयानुसार मोक्षकी प्राप्तिका कारण जिन भगवान्की पूजाका फल तुम्हें कहा । अब इस समय पूजक पुरुषका लक्षण तुम सुनो ॥१४०॥ नित्य पूजनका जो करनेवाला होता है उसे पूजक कहते हैं और जो प्रतिष्ठादि विधियोंका करानेवाला है उसे पूजकाचार्य कहते हैं ॥१४१।। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार वर्षों में आदिवर्णका धारक ( ब्राह्मण ) हो शीलवतका धारक (ब्रह्मचारी ) हो, सत्य शौचादि व्रतका दृढ़ आचरण करनेवाला हो, हिंसा झूठ चोरी आदि अव्रतसे रहित हो ।।१४२।। जाति तथा कुल ( वंश ) से पवित्र बन्धुमित्रादिसे जो शुद्ध हो, तथा गुरुसे उपदेशित मंत्र आदिसे जिसका संस्कार हुआ हो वह पुरुष पूजक कहा जाता है ।।१४३।। अब पूजकाचार्यका लक्षण कहा जाता है-ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य हो, अनेक प्रकार के उत्तम लक्षणों से युक्त हो, कुल तथा जाति आदिसे शुद्ध हो, सम्यग्दृष्टि हो, एक देश व्रतका धारी हो, जिनागमका अच्छी तरह जानने वाला हो, आलस्य-रहित हो, बहुश्रुती हो, गम्भीर प्रकृतिका धारक हो, विनय-युक्त हो, शौच तथा आचमनमें उत्साह युक्त हो, दान देनेवाला हो, कर्तव्य कार्य करने में शूर हो, अङ्ग तथा उपांगयुक्त हो, शुद्ध हो, लक्ष्य तथा लक्षणका जाननेवाला हो, बुद्धिशाली हो, अपनी स्त्रीमें ही सन्तोषका धारक हो या ब्रह्मचारी हो, रोग-रहित हो, उत्तम क्रियाओंका करनेवाला हो, जलस्नान, मंत्रस्नान तथा व्रतस्नानका किया हुआ हो, प्रोषधव्रतका करनेवाला हो, अपने अभिमानकी रक्षा करनेवाला हो, मौनव्रतका धारक हो, प्रातःकाल, मध्याह्नकाल तथा सायंकाल इन तीनों कालमें सामायिकका करनेवाला हो, श्रावकाचारसे जिसका आत्मा शुद्ध हो, दीक्षा शिक्षा आदि अनेक प्रकारके गुणोंसे युक्त हो, गृहस्थोंके सोलह संस्कारोंसे पवित्र हो, ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीतादि) का धारक हो, न अंगहीन हो, न अधिक अंगका धारक हो, न बहुत लम्बा हो, न बहुत छोटा (वामन) हो, न कुरूप हो, न मूर्ख हो, न वृद्ध हो, न अति बालक हो, न क्रोध मान माया लोभादि कषायोंसे युक्त हो, न धनका अर्थी हो, तथा न किसी तरहके व्यसनों का धारक हो । श्रावकोंमें न अन्तिम तीन प्रतिमाघारी हो और न आदि की दो प्रतिमाधारी ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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