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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार आयान्भावनया मार्गे गजपादेन ते हतः। प्राणांस्तत्याज मण्डूकः स संवेगपरायणः ॥१२७ उपपादि स सौधर्मे संपुटके क्वचिदुत्तरे । अन्तर्मुहूत्तंकालेन सम्पूर्णोऽभूत्सुरोत्तमः ॥१२८ दिव्यनादं कलं गोतं श्रुत्वा चाऽप्सरसा तवा । प्रसुप्तवत्प्रबुवासाविति देवो व्यचिन्तयत् ॥१२९ कोऽहं कुतः समायातः कोऽयं देशो मनोरमः। केऽमी जनाः स्तुवन्तीमं केन पुण्येन मां धिताः ॥१३० इति चिन्तयतस्तस्य जातं प्राग्भवबोधनम् । ज्ञात्वा वृत्तान्तमात्मीयं तेनात्मानमसस्मरत् ॥१३१ अहं भेकचरो देव आयातो राजमन्दिरात् । अयं मनोहरः स्वर्गः स्तोतारोऽमी दिवौकसः॥१३२ जिनपूजोधमोत्पन्नपुण्येन सुरसत्तमाः । मां जीव नन्द वर्डस्वेति स्तवैः समुपाश्रयन् ॥१३३ देवदेवोभिरेकत्रोभूयागत्येति जल्पितम् । नाथैतस्य विमानस्य कुर राज्यं गृहाण नः॥१३४ कल्पवृक्षा अमी सन्ति प्रासादाः किंकरा वयम् । अमूरप्सरसो रम्यास्त्वं तिष्ठात्र चिरं विभो ॥१३५ इति श्रुत्वा वचस्तेषां कृत्याय स्नानवापिकाम् । गत्वा स्नात्दा जिनान्नत्वा विमानस्थजिनालये ॥१३६ अङ्गीकृत्य विमानश्यं क्षणं पुनरचिन्तयत् । अहंद्यात्राऽनुमोदेन जातः सा क्रियतेऽधुना ॥१३७ ततोऽयं मौलिभेका आयातो जिनमीडितुम् । सौन्दर्यादिगुणोपेतः कान्तिमान्दिव्यभूषणः ॥१३८ श्रुत्वेति गौतमी वाचं प्रशंसुशुनपादयः । भेकोपोवृक्फलं लभेऽनुमोदात्पूजनान्न किम् ॥१३९ स्वर्गमें उत्तर-दिशाके ओरकी उपपाद शय्यामें जन्म लिया और अन्तर्मुहत्तं मात्रमें पूर्ण सुरोत्तम (देव) हुआ ॥१२८|| वह सुरोत्तम उस समय सोते हुएके समान प्रबुद्ध होकर और देवाङ्गनाओंके मनोहर शब्द तथा गीतको सुनकर इस तरह विचारने लगा ॥१२९।। अहो ! मैं कौन हूँ ? कहाँसे आया हूँ? यह मनोहर कौन सा देश है ? ये लोग कौन हैं ? जो मेरी स्तुति कर रहे हैं और ये सब किस अमित पुण्यके उदयसे मेरी शरण आये हैं ? ||१३०। इस तरह विचार करते हो उसे अपने पूर्व जन्मका ज्ञान हो गया। अपने स्वकीय वृत्तान्तको जान कर अपनी आत्माको यों स्मरण करने लगा ॥१३१।। मैं पहले तो मेंढक था अब देव हुआ हूँ और राजगृहसे में स्वर्गमें आया हूँ। यह सुन्दर स्वर्ग है और ये मेरा गुण कीर्तन करनेवाले देवता लोग हैं ॥१३२॥ ये सब देवता लोग जिन भगवानकी पूजाके उद्यमसे उत्पन्न होने वाले पुण्यके प्रभावसे मेरी 'तुम चिरकाल जीयो ! तुम दिनों दिन आनन्दको प्राप्त होओ !! तुम वृद्धिको प्राप्त होओ !!' इत्यादि नाना प्रकारकी सुन्दर स्तुतियोंसे सेवा कर रहे हैं ॥१३३।। उसी समय सर्व देव देवाङ्गनाओंने मिलकर उस देवसे कहा कि-हे नाथ ! इस विमानका आप राज्य करें और हमें भी स्वीकार करें ॥१३४॥ हे नाथ ! ये कल्पवृक्ष हैं, ये बड़े-बड़े हर्म्य ( मन्दिर ) हैं, हम सब आपके दास हैं और ये देवांगनाएं हैं। आप चिरकाल पर्यन्त यहां रहें ॥१३५|| इस प्रकार देव-देवांगनाओंके वचनोंको सुनकर उस सुरोत्तमने जिन पूजनादि कार्यके लिये स्नान करनेकी बावड़ीमें जाकर और स्नान करके अपने विमानके जिनालयमें जिन भगवानकी वन्दना की ॥१३६।। इसके बाद उन देव-देवांगनाओंकी प्रार्थनाके अनुसार विमानके स्वामीपनेको स्वीकार करके क्षण-मात्रमें फिर विचार करने लगा-अहो ! में तो श्री अर्हन्त भगवान्की यात्राके अनुमोदनसे देव हुआ हूँ इसलिये मुझे वह यात्रा अब करनी चाहिये ॥१३७|| इसीसे सुन्दरतादि गुणोंसे युक्त, कान्तिमान, तथा स्वर्ग-जनित मनोहर आभरणका धारक और जिसके मुकुटमें मेंढकका चिह्न है ऐसा यह देव जिन भगवान्के पूजन करनेको समवशरण में आया है ॥१३८॥ महाराज श्रेणिक आदि सर्व सभावासी भव्य पुरुष भगवान् गौतम स्वामीकी इस प्रकार वाणी सुनकर प्रशंसा करने लगे। अहो ! जिन पूजनके अनुमोदन मात्रसे एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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