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________________ १६३ श्रावकाचार-संग्रह एतां दृष्ट्वा यदाज्यातां तवा सन्मुखमावजत् । सा तं सन्मुखमायान्तं वीक्ष्य जाता पराङ्मुखो ॥११६ तयैकदा मुनिः पृष्टः सुखताख्योऽवधीक्षणः । कोऽयं भेकः स तामाह भद्रे ! शणु समाहिता ॥११७ नागदत्तः पतिस्ते यो धर्मकर्मविजितः । आतध्यानेन मृत्वा स भेकोऽजनि जलाशये ॥११८ श्रुत्वेति श्रेष्ठिनी पापं निन्दन्ती फलमङ्गिनः । रुदन्ती स्नेहमाधाय भेकान्तं सा तदाऽगमत् ॥११९ पूर्ववत्सम्मुखं भेकमागतं निजमन्दिरम् । आनीय जलकुण्डादौ युक्त्या सा तमुपाचरत् ॥१२० एवं गच्छति कालेऽस्य वसतः कुण्डवारिणि । अन्यदा वनपालेन विज्ञप्तस्त्वमिति प्रभो ॥१२१ स्वामिन् ! धिया समायातो वर्द्धमानो जिनेश्वरः । त्वत्पुण्येन जगत्पूज्यो विपुलाद्री मनोहरे ॥१२२ सानन्दो वनपालाय दत्वा वपुरलङ्कृतीः । गत्वा सप्तपदानि त्वं तद्दिशं जिनमागमः ॥१२३ भेरीरावेण पौरस्त्वं मिलिजिनमचितुम् । निर्गतः स्वपुराहन्तिस्कन्धमारुह्या स्वश्रिया ॥१२४ भेकोऽपि तं समाकर्ण्य स्वानन्दभरनिर्भरः । यास्याम्यहं जिनेन्द्रस्य यात्रायामित्यचिन्तयत् ॥१२५ ततो वाप्यां प्रविश्याऽसौ वद्भिरावाय वारिजम् । चचाल जिनपूजार्थमुप्लवन्नृपनागरैः ॥१२६ - जलमें रहने लगा । अहो ! कर्मका विपाक (फल) अत्यन्त बलवान है ॥११५।। मेंढक जब भवदत्ताको आती हुई देखता तब ही जल्दीसे उसके सामने जाने लगता था और भवदत्ता भी उसे अपने सामने आता हुआ देख कर झट लौट जाती थी ॥११६।। किसी समय भवदताने सुव्रत नाम अवधिज्ञानी मुनिराजसे पूछा-हे नाथ ! यह मेंढक कौन है ? मुनिराजने भवदत्तासे कहा । हे कल्याणि ! तुम सावधान होकर सुनो-में इस मेंढकका वृत्तान्त कहता हूँ ॥११७।। मुनिराजने भवदत्तासे कहा-धर्म कर्मसे रहित नागदत्त जो तुम्हारा स्वामी था वह धनके आतध्यानसे मरकर तुम्हारे घरके पीछेकी बावलीमें मेंढक हुआ है ॥११८॥ भवदत्ता अपने पतिकी इस तरह खोटो गति सुनकर पापके बुरे फलको निन्दा करती हुई और रोती हुई पूर्व-जन्मके स्नेहसे मेंढकके पास आई ॥११९।। भवदत्ता पहलेके समान अपने सामने आते हुए मेंढकको देखकर उसे अपने घर ले आई और योग्य रीतिसे जलके कुण्ड वगैरहमें रखकर उसको सेवा करने लगी ॥१२०।। इस प्रकार कुण्डके जलमें रहते हुए उस मेंढकके कितने दिन बीत जाने पर एक दिन वनपालने आकर तुमसे यों प्रार्थना की ॥१२१।। हे नाथ ! आपके अमित पूण्यके माहात्म्यसे विपूलाचल पर्वत पर बाह्याभ्यन्तरलक्ष्मीसे शोभायमान त्रैलोक्य पूज्य श्रीवर्द्धमान अन्तिम जिनराज पधारे हैं ॥१२२।। श्रीवर्द्धमान जिनेश्वरके आगमन सम्बन्धी समाचार सुनकर आनन्द पूर्वक तुमने वनपालको अपने शरीरके सब वस्त्राभूषण उसी समय दे दिये और जिस दिशाकी ओर जिन भगवान् विराजे थे उसी दिशा में सात पेंड आगे जाकर जिन भगवान्को नमस्कार किया ॥१२३।। तुम्हारी भेरीके शब्दको सुनकर आये हुए पुरवासी लोगोंके साथ जिन भगवान्के पूजनके अर्थ हाथी पर बैठ कर अपनी राज्य लक्ष्मी पूर्वक तुम नगरसे निकले ॥१२४॥ वह मेंढक भी भेरीके शब्दको सुनकर और आनन्दमें मग्न होकर विचारने लगा-में भी आज श्री वीर जिनराजकी यात्रा करनेके लिये जाऊँगा ।।१२५।। वह मेंढक अपने दिलमें जिन भगवान्की यात्राका निश्चय करके उसी समय बावड़ीमें गया और वहाँसे अपने मुखमें एक कमल लेकर पुरवासी लोगोंके तथा तुम्हारे साथ-साथ कूदता हुआ जिनेश्वरके पूजनके अर्थ चला ॥१२६|| संसार देहसे विरक्त वह मेंढक जिन भगवान्के पूजनकी भावनासे आता हुआ रास्तेमें तुम्हारे हाथीके पांवके नीचे दबकर प्राणोंको छोड़ दिया ॥१२७॥ मरकर उस मेंढकने-सौधर्म नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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