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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार दुर्गति दलयत्येषा शम्पेवाऽवनिभुत्तटीम् । पुष्यं पुष्णाति वृक्षाणां कदम्बमिव धोरणिः ॥१०३ यत्किञ्चिदिह सत्सौख्यं वाञ्छितं जगतां त्रये। दृश्यते तज्जिनाऽर्चायाः फलेनैवाऽप्यतेऽङ्गिभिः ॥१०४ गौतमोऽकथयत्तत्र यावत्पूजाफलं गणी । तावदेकोऽमरः स्वर्गादायान्मण्डूकलाञ्छनः ॥१०५ त्रिःपरीत्य जिनं स्तुवा नत्वा गणधरानपि । अन्येषां च यथायोग्यं कृत्वा स्वं कोष्ठमासदत् ॥१०६ तस्य श्रियं च सौन्दर्य समीक्ष्य मगधेश्वरः। पप्रच्छ गणिनं कोऽयं केन पुण्येन कातिमान् ॥१०७ निशम्येति गणाधीश उवाच नरकुञ्जरम । शण्वस्य चरितं राजन्साश्चर्य ज्ञानचक्षुषा ॥१०८ अवार्याऽभिधे खण्डे पद्मिनीषण्डमण्डिते । विषये मगधाख्यऽस्ति परं राजगृहं पुरम् ।।१०९ नागदत्तोऽभवत्तत्र श्रेष्ठी भूरिधनी जनी । भवदत्ता च तस्याऽऽसीत्तया भोगं स भुक्तवान् ॥११० अवसाने स मूढात्मा स्वार्तध्यानोल्लसन्मनाः । मृत्वाऽसौ गृहपृष्टस्थवाप्यां भेकस्त्वजायत ॥१११ अतिष्ठद्रममाणोऽयं विपुले दीधिकाजले। यावत्तदेकदा प्राप भवदत्ता जलाथिनी ॥११२ जज्ञे तद्दर्शनात्तस्य स्वजातिस्मरणं तदा ।हा! हाऽहमार्ततश्च्युत्या जातो जलषरो नरात् ॥११३ भार्यास्नेहेन सान्निध्यं यावदायादसौ तदा। भीत्या पलाय्य तज्जाया प्रविवेश स्वमन्दिरम् ॥११४ संसर्ग प्राक्कलत्रस्य मण्डूकोऽलभमानकः । अत्यारटञ्जले तस्थौ विपाकः कर्मणो बली ॥११५ करनेसे जीवोंके जन्म जन्मका संचित पाप कर्म उसी समय नाश हो जाता है ।।१०२।। यही जिनपूजा दुर्गतिको नाश करनेवाली है और वृक्षोंकी श्रेणी जिस तरह कदम्ब तरुको परिवर्तित करती है उसी तरह पुण्यकर्मकी वृद्धि करनेवाली है ॥१०३।। तीन लोकमें जो कुछ भी जीवोंके अभिलषित उत्तम सुख देखा जाता है वह सुख जिन भगवान्के पूजनके फलसे ही प्राणी प्राप्त करते हैं ।।१०४॥ जिस समय भगवान् गौतम गणधर महाराज श्रेणिकसे जिन भगवान्की पूजाका फल कह रहे थे उसो समय मुकुटके ऊपर मेंढक चिन्हका धारक एक देव स्वर्गसे आया ॥१०५।। वह देव जिन भगवान्की तीन प्रदक्षिणा देकर तथा नाना प्रकार भक्ति-पूर्वक जिन भगवान्को स्तुति करके इसके बाद गणधर भगवान्की वन्दना करके और भी मुनि आदिका यथा योग्य सत्कारादि करके अपने कोठेमें जाकर बैठ गया ॥१०॥ उस समय मगधदेशके स्वामी महाराज श्रेणिकने उस देवकी लक्ष्मी तथा मनोहरताको देखकर भगवान् गौतम गणधरसे पूछा-महाराज! यह जो अभी आया है वह कौन है ? और किस बड़े भारी पुण्यसे यह ऐसा सुन्दर है ? ||१०७॥ महाराज श्रेणिकके प्रश्नको सुनकर भगवान् गौतम स्वामीने उनसे कहा-हे राजन् ! इसके आश्चर्यकारी चरितको तुम सावधान होकर सुनो! ॥१०८॥ हे राजन् ! कमलिनियोंके समूहसे शोभित इसी आर्यखण्डमें मगध नामक देश है। उस देशमें राजगृह नाम एक मनोहर नगर है ।।१०९|| उस राजगृह नगरमें बहुत धनी तथा बहुत कुटुम्बी नागदत्त नाम सेठ था। उसके भवदत्ता नामकी वनिता थी। उसके साथ वह निरन्तर भोगोंको भोगता रहता था ।।११०।। वह मूर्ख नागदत्त घनमें आतंध्यानी होकर अन्त समयमें मरकर अपने घरके पोछेकी बावडीमें मेंढक हुआ ॥११॥ वह मेंढक बावडीके गहरे जलमें क्रीडा करता रहता था। एक दिन भवदत्ता जलके लिये बावडाके ऊपर आई ॥११२॥ उसके देखने मात्रसे मेंढकको अपनी पूर्व जातिका स्मरण हो आया। जातिस्मरण होनेमात्रसे वह मेंढक हाय ! हाय !! मैं अाध्यानसे मरकर मनुष्य जन्मसे जलजन्तु हुआ। इस प्रकार पश्चात्ताप करने लगा ॥११३।। जब भवदत्ता जलके लिये आई तो उसे आती हुई देख कर पूर्व जन्मकी स्त्रीके अनुरागसे वह उसके पास आया, तब भयसे भवदत्ता भागकर अपने घरमें घुस गई ॥११४॥ मेंढक अपनी पूर्व भवकी स्त्रीके साथ सम्बन्ध न पाकर बहुत चिल्लाता हुया २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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