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________________ १६५ धर्मसंग्रह प्रायकावार कर्ता फलं न चाऽऽप्नोति नैव कारयिता ध्र वम् । ततस्तल्लक्षणश्रेष्ठः पूजकाचार्य इष्यते ॥१५३ पूर्वोक्तलक्षणैः पूर्णः पूजयेत्परमेश्वरम् । तदा दाता पुरं देशं स्वयं राजा च वर्द्धते ॥१५४ असिमसिः कृषिस्तिर्यक्पोषं वाणिज्यविद्यके । एभिरर्थार्जनं नीत्या वार्तेति गदिता बुधैः ॥१५५ एभिः स्वजीवनं कुर्युगुहिणः क्षत्रियादयः । स्वस्वजात्यानुसारेण नीतिज्ञेरुदितं यथा ॥१५६ तथा समर्जयेद्वित्तं यथा धर्म न नश्यति । सुखं न क्षीयते ते च सापेक्षे सेवतां मिथः ॥१५७ एष्वेकशोऽश्रुवानाः स्वं कृतार्थ जन्म मन्यते । केऽपि कौचिद्विशो लोका वयं वा विद्म तत्त्रयम् ॥१५८ दानायोपाज्यंते वित्तं भोगाय च गहाश्रमे । यस्य तस्मिश्च न स्तस्ते तस्यार्थोपार्जनं वृथा ॥१५९ दानं भोगो विनाशश्च वित्तस्य तु गतिस्त्रयो । यो न दत्ते न भुङ्क्ते च तस्यावश्यं परा गतिः ॥१६० योऽर्थः समय॑ते दुःखाद्रक्ष्यते चाऽतिदुःखतः। तत्फलं गृह्यते सद्धिनाद्धोगाच्च नित्यशः ।।१६१ न्यायेनोपाज्यंते यत्स्वं तदल्पमपि भरिशः । बिन्दुशोऽप्यमृतं साधु क्षाराब्धेर्वारि नो बहु ॥१६२ श्रावक हो, अर्थात् मध्यवर्ती छह प्रतिमाओंमेंसे किसी भी प्रतिमाका धारी हों, संकलन संयमका धारक मुनि न हो । यदि व्यसनादि दोषोंका धारक प्रतिष्ठाचार्य कहों पर प्रतिष्ठा करावे तो समझो कि-देश, पुर, राज्य तथा राजा आदि सभी नाशको प्राप्त होते हैं और न प्रतिष्ठा करने वाला तथा करानेवाला ही अच्छे फलको प्राप्त होता है। इसलिये उपर्युक्त उत्तम लक्षणोंसे विभूषित ही प्रतिष्ठाचार्य कहा जाता है ।।१४४-१५३।। ऊपर जो प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण कहे हैं यदि उन लक्षणोंसे युक्त पूजक तथा प्रतिष्ठाचार्य परमेश्वरको प्रतिष्ठादि करें तो उस समय धनका खर्च करनेवाला दाता, पुर, देश तथा राजा ये सब दिनों दिन वृद्धिको प्राप्त होते हैं ॥१५४।। __असि ( खड्ग धारण ), मसि ( लिखना ), कृषि (खेती करना), तिर्यञ्चोंका पालन करना, व्यापार करना तथा विद्या इन छह बातोंसे नीतिपूर्वक धनके कमानेको बुद्धिमान् लोग वार्ता कहते हैं ।।१५५।। इन छहों कर्मोंसे क्षत्रियादि वर्गों को अपनी-अपनो जातिके अनुसार जोवन-निर्वाह करना चाहिये। जैसा नीतिके जाननेवाले पुरुषोंने बताया है ॥१५६।। धन उस रीतिसे कमाना चाहिये जिससे धर्म तथा सुखका नाश न होवे और धर्म अर्थका जिस तरह परस्पर सापेक्षपना बना रहे उसी तरह इनका परस्पर सेवन करना चाहिये ॥१५७|| कितने लोग तो ऐसे हैं जो केवल धर्मके अथवा अर्थके अथवा कामके ही सेवनसे अपना जीवन सार्थक समझते हैं और कितने ऐसे हैं जो धर्म तथा अर्थके या अर्थ और कामके, या धर्म और काम इन दो-दो के सेवनसे अपने मानव जन्मको कृतकृत्य समझते हैं। हम तो धर्म अर्थ तथा काम इन तीनोंके सेवनसे ही अपने जीवनको सार्थक समझते हैं ॥१५८|| धनका उपार्जन दान देनेके लिए तथा गृहस्थाश्रममें भोगनेके लिये किया जाता है और जिसके गृहस्थाश्रममें न दान है और न भोग है ऐसे पुरुषोंका धन कमाना निष्फल है ॥१५९॥ दान देना, नाना प्रकारके समोचीन भोगोंका भोगना तथा नष्ट हो जाना ये तीन ही गति धनकी होती है। जो पुरुष न तो दान देता है और न धनका भोग करता है उसके धनको तीसरी गति (विनाश) स्वयं सिद्ध है।॥१६०॥ जो धन अत्यन्त क्लेशके साथ तो उपार्जन किया जाता है और उपार्जनावस्थामें क्लेशसे भी अधिक क्लेश जिसकी रक्षा करने में है उस धनका सुख सत्पुरुष-नित्य प्रति दान देनेको अथवा गृहस्थाश्रम सम्बन्धी भोगोंके भोगनेको समझते हैं ॥१६१॥ नीतिपूर्वक कमाया हुआ थोड़ा भी धन बहुत है। अमृतको एक बूंद ही अच्छी है परन्तु खारे समुद्रका बहुत जल अच्छा नहीं है ॥१६२॥ धर्म, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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