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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १५३ यावत्यजति चावासं धनं धयं सुताय वै । समय ताववस्याऽत्र चर्यात्वमिवमुच्यते ॥१२ भवाङ्गभोगनिविण्णः परमात्मस्थमानसः । यस्तस्याइपरित्यागः साधकत्वं समाधिना ॥१३ एभिः पक्षादिभिर्योगैः क्षिप्यते श्रावकैरिदम् । कषायवासिताम्भोभिवंस्त्रस्येव मलं लघु ॥१४ आश्रमाः सन्ति चत्वारो जैनानां परमागमे । ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च संज्ञया ॥१५ अदीक्षोपनयो गूढावलम्बौ नैष्ठिकोऽभिधाः । सप्तमाङ्ग भिदाः सन्ति पञ्चैते ब्रह्मचारिणाम् ॥१६ वेषं विना समभ्यस्तसिद्धान्ता गृहमिणः । ये ते जिनागमे प्रोक्ता अदीक्षा ब्रह्मचारिणः ॥१७ समभ्यस्तागमा नित्यं गणभृत्सूत्रधारिणः । गृहधर्मरतास्ते चोपनयब्रह्मचारिणः ॥१८ कुमारश्रमणाः सन्तः स्वीकृतागमविस्तराः । बान्धवैधरणीनाथैर्दुःसहैर्वा परोषहैः ॥१९ आत्मनैवाऽथवा त्यक्तपरमेश्वररूपकाः । गृहवासरता ये स्युस्ते गूढब्रह्मचारिणः ॥२० पूर्व क्षुल्लकरूपेण समभ्यस्याऽऽगमं पुनः । गृहीतगृहवासास्तेऽवलम्बब्रह्मचारिणः ॥२१ शिखायज्ञोपवीताङ्कास्त्यक्तारम्भपरिग्रहाः । भिक्षां चरन्ति देवार्चा कुर्वते कक्षपट्टकम् ॥२२ धवलारक्तयोरेकतरैकवस्त्रखण्डकम् । धरन्ति ये च ते प्रोक्ता नैष्ठिकब्रह्मचारिणः ॥२३ प्रायश्चित्तादिसे शुद्ध करता हुआ तथा तप धारण किये बिना पापकर्मका कभी नाश नहीं होगा ऐसा हृदयमें निश्चय करता हुआ जो भव्यात्मा पुरुष-धन, स्त्री, जननी तथा चैत्यालयादिक धर्म्यवस्तुओंको अपने पुत्रके अधीन करके जबतक गृहका त्याग करता है तब तक इसको चर्या होती है ॥११-१२। जो संसार, शरीर, भोगादिसे सर्वथा विरक्त-चित्त है, जिसका मन परमात्मामें लग रहा है, उस भव्य पुरुषके समाधि (सल्लेखना) पूर्वक जो शरीरका छोड़ना है उसे साधकत्व कहते हैं ॥१३।। जिस तरह कषाय-वासित जलसे वस्त्रका मैल बहुत शीघ्र दूर हो जाता है उसी तरह इन पक्ष, चर्या तथा साधनादिके द्वारा हिंसादिसे उत्पन्न होनेवाले पापकर्मका गृहस्थ लोग नाश करते हैं ॥१४॥ जैन शास्त्रोंमें जैन लोगोंके ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा भिक्षुक इस तरह चार आश्रम हैं ।।१५।। उपासनाध्ययन नाम सप्तम अंगमें ब्रह्मचारियोंके अदीक्षा ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारो, उपनयब्रह्मचारी, गृढब्रह्मचारी, अवलम्ब ब्रह्मचारी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी इस तरह पाँच भेद कहे हैं ॥१६।। ब्रह्मचारीका वेष धारण किये विना जिन्होंने सिद्धान्तका अध्ययन किया है ऐसे जो गृहस्थ लोग हैं उन्हें जिनागममें अदीक्षित ब्रह्मचारी कहते हैं ॥१७॥ जिन्होंने शास्त्रका अभ्यास किया है, जो गणधर सूत्रको धारण करनेवाले हैं और गृहस्थ धर्म में तत्पर हैं उन्हें उपनय कहते हैं ।।१८।। जिन्होंने कुमार कालमें ही मुनि वेष धारण करके सिद्धान्तका अध्ययन किया है वे फिर कभी अपने बन्धु लोगोंके तथा राजादिके आग्रहसे, दुःसह परीषहोपसर्गादिके न सहन होनेसे, अथवा अपने आप ही उस धारण किये हुए जिन रूप (मुनि वेष) को छोड़ कर गृह कार्यमें लगते हैं उन्हें जिनागममें गूढ ब्रह्मचारी कहा है ।।१९-२०॥ जो पहले क्षुल्लक रूप धारण करके और जैनागमका अध्ययन करके फिर गृहवासको स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी समझना चाहिये ।।२१।। जो शिखा (चोटी), यज्ञोपवीतसे युक्त हैं, जिन्होंने आरंभ तथा परिग्रहका त्याग कर दिया है, जो भिक्षा करके आहार करते हैं जो जिनदेवका पूजन करते हैं तथा कौपीन और श्वेत वस्त्र तथा लाल वस्त्र में से किसी एक तरहके वस्त्रखंडको धारण करते हैं वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं ।।२२-२३।। नैष्ठिक ब्रह्मचारीको छोड़ कर बाकीके अदीक्षा ब्रह्मचारी, उप य ब्रह्मचारी, अवलम्ब ब्रह्मचारी, तथा गूढब्रह्मचारी ये चार ब्रह्मचारी शास्त्राभ्यासको समाप्त करके अन्तमें २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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