________________
षष्ठोऽधिकारः
समितीनं विना स्यातां देशवतमहावते । पुराधिपतिदेशाधिपतित्वे वाहिनीरिव ॥१ तस्मादणुव्रती पश्च समितीः परिपालयेत् । अणुव्रतस्य रक्षार्थ वीजस्येव लसेद्वतीः ॥२ सम्यगयनं तद्धि प्रतीति समितिर्मताः । ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गनामिकाः ॥३ मार्तण्डकिरणस्पृष्टे गच्छतो लोकवाहिते । मार्गे दृष्ट्वाऽङ्गिसङ्घातमोर्यादिसमितिर्मता ॥४ परबाधाकरं वाक्यं न ब्रूते धर्मदूषितम् । यस्तस्य समितिर्भाषा जायते वदतो हितम् ॥५ षट्चत्वारिंशतादोषैरन्तरायमलैश्च्युतम् । आहारं गृह्णतः साधोरेषणा समितिर्भवेत् ॥६ पुस्तकाद्युपधि वीक्ष्य प्रतिलेख्य च गृह्णतः । मुञ्चतो दाननिक्षेपः समितिः स्याद्यतेरियम् ॥७ विमूत्रश्लेष्मखिल्यादिमलमुज्झति यः शुचौ । दृष्ट्वा विशोध्य तस्य स्यादुत्सर्गसमितिहिता ॥८ कृष्यादिजीवनोपायहिंसादेः पापमुद्भवम् । गृहिणा क्षिप्यते स्वामिन्कथमवदद्गणी १९ व्यापारैर्जायते हिंसा यद्यप्यस्य तथाप्यहो । हिंसादिकल्पनाभावः पक्षात्वमिदमीरितम् ॥१० हिंसादिसम्भवं पापं प्रायश्चित्तेन शोधयन् । तपो विना न पापस्य मुक्तिश्चेति विनिश्चयन् ॥११
__ जब तक सेना नहीं होती है तब तक राजा होने पर भी पुराधोश तथा देशका स्वामी वह नहीं कहला सकता। उसी प्रकार जब तक समितियां न होंगी, तब तक देशव्रत तथा महाव्रतका रक्षण नहीं हो सकता ॥१॥ जिस तरह खत में सोये हुए बीजकी रक्षाके लिये चारों ओर कांटेकी बाढ़ लगाई जाती है उसी तरह अणुव्रती श्रादत्रा चाहिये कि अपने धारण किये हुए अणुव्रतकी रक्षाके लिये ईर्या, भाषा, एषणा आदि पाँच प्रकार जो समितियाँ हैं उन्हें अवश्य पालन करे ॥२॥ शुद्धिके लिये जो अच्छा मार्ग उसे समिति कहते हैं। वह ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेप-समिति तथा उत्सर्गसमिति इस तरह पांच प्रकार है ॥३।। जिसमें सर्यका प्रकाश चारों ओर हो रहा है तथा जिसमें लोगोंका गमनागमन हो रहा है ऐसे मार्गमें जीवोंकी रक्षाके अर्थ देखकर चलने वाले धर्मात्मा पुरुषके ईर्यासमिति होती है ||४|| जिन वचनोंके बोलनेसे दूसरे जीवोंको दुःख होता है तथा जो वचन धर्मसे विरुद्ध है अर्थात् जिसके बोलनेसे धर्ममें दोष लगता है ऐसे वचनोंको न बोलकर और जो दूसरोंके हित करने वाले तथा धर्मसे अविरोधी वचन बोलते हैं उन महात्मा पुरुषोंके भाषासमिति होती है ॥५॥ छयालीस दोष, बत्तोस अन्तराय और चौदह मलोंसे रहित पवित्र आहारको लेनेवाले साधु पुरुषोंके एषणासमिति होती है ॥६।। पुस्तक, कमण्डलु, पिच्छी आदि उपकरण देखकर तथा शोध कर ग्रहण करनेवाले और रखनेवाले मुनि लोगोंके आदाननिक्षेपसमिति होती है ॥७॥ जो धर्मात्मा पुरुष-विष्टा, मूत्र तथा कफ आदि अपवित्र वस्तुओंको जीव-रहित पृथ्वीमें देखकर तथा शोधकर छोड़ते हैं उनके उत्सर्गसमिति होती है ||८|| राजा श्रेणिक गौतमगणधरसे पूछते हैं-हे स्वामिन्, कृषिकर्म आदि जीविकाके उपायोंसे जो गृहस्थ लोगोंको हिंसा आदिका पापबन्ध होता है उसे वे लोग कैसे नाश करें ? इसपर गणधर ने कहा ।।९।। यद्यपि गृहस्थ लोगोंके व्यापारादिसे हिंसा होती है परन्तु उसमें हिंसादिकी कल्पनाका अभाव है। इसे पक्ष कहते हैं ।।१०।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशोल आदिसे होनेवाले पापको प्रायश्चित्तादिसे शुद्ध करता हुआ तथा तप धारण किये बिना पापकर्मका कभी नाश नहीं होगा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org