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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
१५१ सोऽन्ते सन्न्यासमादाय स्वात्मानं शोधयेद्यदि । तदा साधनमापन्नः साधकः श्रावको भवेत् ॥८१ अन्येऽपि प्रतिमानां ये भेदाः सन्ति जिनागमे । बिवुधस्तेऽपि विज्ञेया गुर्वादेशेन विस्तरात् ॥८२ आसां संज्ञां व्रतं निष्ठा धर्मो वृत्तं च संयमः । धर्मस्थानं च निश्रेणिश्चारित्रं च बुधर्मताः ॥८३ त्रसहिंसादिनिविण्णोऽप्रत्याख्यानस्य हानितः । प्रत्याख्यानोदयादस्य स्थावराणां न रक्षणम् ॥८४ ततोऽमुष्यैकदेशेन संयमत्वान्महाव्रतम् । न कल्पते गुणस्थानं पञ्चमं नाधऊर्ध्वगम् ॥८५ रागादीनां क्षयादत्र तारतम्यादथोत्तरम् । दर्शनाद्येषु धर्मेषु नैर्मल्यं जायते तराम् ॥८६ धार्मिकः प्राणनाशेऽपि व्रतभङ्गं करोति न । प्राणनाशः क्षणे दुःखं व्रतभङ्गश्चिरं भवे ॥८७ यदि प्रमादतः क्वापि व्रतच्छेदोऽस्य जायते । गुरोरालोच्य तत्पापं शोधयेत्तस्य देशनात् ॥८८ एष निष्ठापरो भव्यो नियमेन सुरालयम् । गच्छत्यच्युतपर्यन्तं क्रमशः शिवमन्दिरम् ॥८९
इत्यापवादं विविधं चरित्रं समभ्य सन्तिष्ठति यः सुमेधाः ।
कालादिलब्धौ क्रमतां पुनः स उत्सर्गवृत्तं जिनचन्द्रदिष्टम् ॥५० वही उत्कृष्ट श्रावक मरण समयमें संन्यास (सल्लेखना) को ग्रहण करके यदि अपने आत्माको शुद्ध करे तो उस समय साधनदशाको प्राप्त होता हुआ श्रावक साधक कहा जाता है ।।८।। जैनशास्त्रोंमें प्रतिमाओंके और भी जो भेद हैं उन्हें गुरुओंकी आज्ञासे विस्तार पूर्वक जानना चाहिये ॥८२।। इन्हीं प्रतिमाओंके व्रत, वृत्त, निष्ठा, धर्म, संयम, धर्मस्थान, निश्रेणि, तथा चारित्र इत्यादि भी नाम बुद्धिमान् लोग कहते हैं ।।८३।। यह श्रावक अप्रत्याख्यानावरणीय कषायका नाश होनेसे द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंकी हिंसासे विरक्त रहता है परन्तु प्रत्याख्यानावरणीय कषायका इसके उदय रहता है इसलिये स्थावर जीवोंकी रक्षा नहीं कर पाता है ।।८४॥ इस श्रावकके एक देश संयमके होनेसे महाव्रत नहीं कहा जा सकता और न पञ्चम गुणस्थानसे नीचे तथा ऊपर इसके गुणस्थान होता है। अर्थात् यह पांचवें ही गुणस्थान वाला रहता है ।।८५।। इन दार्शनिक आदि ग्यारह ही प्रतिमाओंमें उत्तरोत्तर अधिक रागादिकोंका अभाव होनेसे अत्यन्त निर्मलता होती जाती है ।।८।। धर्मात्मा पुरुषोंको अपने ग्रहण किये हुए व्रतका भङ्ग कभी नहीं करना चाहिये, चाहे फिर प्राणोंका नाश ( मरण ) ही क्यों न हो जाय । क्योंकि-प्राणोंका नाश होनेसे तो उसी समय दुःख होता है परन्तु व्रत-भङ्ग होनेसे चिरकालपर्यन्त संसारमें असह्य दुःख उठाने पड़ते हैं ।।८७।। यदि प्रमाद (असावधानोसे) ग्रहण किये हुए व्रतमें किसी प्रकारका दोष लग जाय तो उसे गुरुओंके सामने आलोचना करके उनके उपदेशानुसार उस पापकी शुद्धि करै ।।८८।। इस प्रकार निष्ठा (प्रतिमाओके पालन) में तत्पर यह भव्यात्मा नियमसे अच्युत विमानपर्यन्त जाता है और क्रमसे मोक्षको प्राप्त करता है ।।८९॥ इस तरह नाना प्रकारके चारित्र युक्त अपवाद लिङ्गका पहले सम्यक् प्रकार अभ्यास करके जो बुद्धिमान स्थिर रहता है वही भव्यात्मा फिर क्रमसे कालादिलब्धिको प्राप्ति होने पर जिन भगवान् करके उपदेशित उत्सर्गव्रतको धारण करनेके लिए उत्साहित होवे ॥१०॥
इति सूरिश्रीजिनचन्द्रान्तेवासिना पण्डितमेधाविना विरचिते श्रीधर्मसंग्रहे सामायिकादिप्रतिमानवकस्वरूपवर्णनो नाम पञ्चमोऽधिकारः ।।५।।
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