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________________ १५४ श्रावकाचार-संग्रह नैष्ठिकेन विना चाऽन्ये चत्वारो ब्रह्मचारिणः । शास्त्राभ्यासं विधायाऽन्ते कुर्वते दारसंग्रहम् ॥२४ प्रथमाऽऽश्रमिणः प्रोक्ता वक्ष्यन्ते त्वधुना मया । द्वितीयाऽऽश्रमसंसक्ता गृहिणी धर्मवासिताः ॥ २५ इज्या वार्ता तपो दानं स्वाध्यायः संयमस्तथा । ये षट्कर्माणि कुर्वन्त्यन्वहं ते गृहिणो मताः ॥ २६ जलाद्यैर्धीत पूतागृहान्नीतैजनालयम् । यदर्च्यन्ते जिना युक्त्या नित्यपूजाऽभ्यधायि सा ॥२७ स्थापनं जिनबिम्बानां तद्गृहस्य विधापनम् । तस्मै ग्रामगृहादीनां शासनस्य यदर्पणम् ॥२८ देवार्चनं गृहे स्वस्य त्रिसन्ध्यं देववन्दनम् । मुनिपादार्चनं दाने साऽपि नित्याचंना मता ॥ २९ पूजा मुकुटबद्धेर्या क्रियते सा चतुर्मुखः । चक्रिभिः क्रियमाणा या कल्पवृक्ष इतीरिता ॥३० नन्दीश्वर महापर्व पूजैषाऽष्टाह्निकाऽभिया । इन्द्राद्यैः क्रियते पूजा सेन्द्रध्वज उदाहृता ॥३१ चतुर्मुखादयः पूजा याश्च प्रोक्ता निमित्तजाः । तद्भेदा विस्तराज्ज्ञेया बहवोऽर्वादिकल्पतः ॥३२ पूज्यः पूजाफलं तस्याः पूजकश्व विशेषतः । अधिकाराः समादिष्टाः पूजाकल्पे मुनीश्वरैः ॥ ३३ पूज्योऽर्हन्केवलज्ञानदृग्वीर्यसुखधारकः । निःस्वेदत्वादिनैर्मल्यमुख्यकैः संयुतो गुणैः ॥ ३४ गर्भजन्मतपोज्ञान मोक्ष कल्याणराजितः । भाषाभामण्डलाद्यैश्च प्रातिहार्ये विभूषितः ॥ ३५ द्विम्बं लक्षणैर्युक्तं शिल्पिशास्त्रनिवेदितैः । साङ्गोपाङ्गं यथायुक्त्या पूजनीयं प्रतिष्ठितम् ॥३६ दार-संग्रह अर्थात् स्त्रीके साथ विवाह करते हैं ||२४|| प्रथम आश्रमके धारण करनेवालोंका मैंने वर्णन किया । अब इस समय धर्मयुक्त द्वितीय गृहस्थाश्रमके धारण करनेवालोंका वर्णन करता हूँ ||२५|| इज्या ( जिन पूजन), वार्त्ता, तप, दान, स्वाध्याय तथा संयम इन छह कर्मोंको जो प्रतिदिन करते हैं वे गृहस्थ कहे जाते हैं ||२६|| पवित्र शरीर होकर गृहस्थ लोग जो अपने गृहसे लाये हुए जल, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि द्रव्योंसे जिन भगवान्‌का पूजन करते हैं वह नित्य पूजा कही गई है ||२७|| जिनबिम्बकी स्थापना ( प्रतिष्ठा) करना, जिनालयका बनवाना, जिनशासनकी वृद्धिके लिये जिन मन्दिरमें ग्राम तथा गृहादिका देना, अपने गृहमें जिन भगवान्का पूजन करना, तोनों काल देववन्दना (सामायिक) करना तथा दान देनेके समय मुनियोंके चरणोंका पूजनादि करना ये नित्य पूजनके ही भेद हैं ।। २८-२९ ।। मण्डलेश्वर, राजा, महाराजा जो पूजन करते हैं उसे चतुर्मुख पूजन कहते हैं और जो पूजन छह खंड वसुन्धराके अधिपति चक्रवर्ती करते हैं उस पूजनका नाम कल्पवृक्ष पूजन है ||३०|| जो नन्दीश्वर महापर्व में पूजा की जाती है उसे अष्टाह्निक पूजन कहते हैं और इन्द्रादि देवोंसे जो पूजा की जाती है उसे इन्द्रध्वज पूजन कहते हैं ॥ ३१ ॥ चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, अष्टाह्नि+ तथा इन्द्रध्वज ये जो नैमित्तिक पूजन-विधानके चार भेद कहे हैं इनके और भी अनेक भेद हैं उन्हें विस्तारपूर्वक पूजाकल्प (पूजन- सम्बन्धी शास्त्रों) से जानना चाहिये ||३२|| पूज्य ( पूजन योग्य), पूजा फल, तथा पूजक (पूजन करनेवाला) इनके विशेषसे पूजा सम्बन्धी शास्त्रोंमें प्राचीन मुनियोंने अधिकार वर्णन किये हैं ||३३|| अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त सुख रूप अनन्तचतुष्टयसे विराजमान तथा पसेव-रहित आदि जो प्रधान निर्मल गुण हैं उनसे युक्त श्री अर्हन्त भगवान् पूज्य हैं ||३४|| गर्भकल्याण, जन्मकल्याण, तपःकल्याण, ज्ञानकल्याण तथा मोक्षकल्याण इन पाँच कल्याणोंसे विराजमान तथा दिव्यध्वनि, भामण्डल, अशोकवृक्ष, देवकृतपुष्पवृष्टि, चामर, सिंहासनादि, आठ प्रकारके प्रातिहार्योंसे शोभित श्री अर्हन्त भगवान् पूज्य हैं ||३५|| प्रतिमा बनानेके जो-जो लक्षण शिल्पिशास्त्रोंमें वर्णन किये हैं उनसे युक्त, अंग उपांग सहित तथा शास्त्रानुसार प्रतिष्ठा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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