SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ श्रावकाचार-संग्रह विध्वस्तमोहपञ्चास्यपुनर्जीवनशङ्किनाम् । गृहत्यागक्रमः प्रोक्तः शक्त्यारम्भो हि सिद्धिकृत् ॥४५ चित्तमूर्छाकर मायाक्रोधादिगूढपा विलम् । तृष्णाग्निकाष्ठमाबुध्य दुर्ग्रहं च परिग्रहम् ॥४६ परित्यज्य त्रिशुद्धघाऽसौ सर्व मोहारिघातये । तिष्ठेगृहे कियत्कालं वैराग्यं भावयन्सुधीः ॥४७ निराकुलतया देवपूजादौ कर्मणि स्थिरः । तद्दत्तं कशिपुं भुञ्जस्तिष्टेन्छान्तमनारहः ॥४८ इत्युक्ता वणिनो मध्याः श्रावकावधुनोच्यते । उत्कृष्टौ भिक्षुको तौ चानुमतोद्दिष्टवजिनौ ॥४९ यो नानुमन्यते ग्रन्थं सावद्यं कर्म चैहिकम् । नववृत्तधरः सोऽनुमतिमुक्तस्त्रिधा भवेत् ॥५० स्वाध्यायं वसतौ कुर्यादूद्ध्वं द्वितयवन्दनात् । आकारितः स भुञ्जीत स्वगृहे वा परस्य वा ॥५१ यथालब्धमदन्कायस्थितये भोजनं खलु । कायश्च धर्मसिद्धयै स मोक्षाथिभिरपेक्ष्यते ॥५२ सावद्योत्पन्नमाहारमुद्दिष्टं वर्जये कथम् । भैक्षामृतं कदा भोक्ष्ये वाञ्छेदिति वशी हि सः ॥५३ पश्चाचारं जिघृक्षुश्च निष्क्रमिष्यन्गृहादसौ । पुत्रादोन्स्वगुरून्बन्धून्यादिति यथोचितम् ॥५४ न मे शुद्धात्मनो यूयं भवेत किमगि ध्रुवम् । तन्मां मुञ्चत मोक्षाय प्रोद्यन्तं मोहपाशतः ॥५५ अधीन करो । ग्रन्थकार कहते हैं-आत्महितके चाहनेवाले भव्य पुरुषोंको यह मकल दत्ति (सम्पूर्ण वस्तुओंका देना) उत्कृष्ट पथ्य स्वरूप है ॥४४॥ पूर्व आठ प्रतिमा रूप खड्गसे घायल हुए मोहरूप सिंहके फिर भी जीनेका सन्देह करनेवाले गृहस्थाश्रमी श्रावकोंके लिये ही यह गृहत्यागका अनुक्रम कहा है । इसी अनुसार उन्हें त्याग करना चाहिये। क्योंकि शक्तिके अनुसार किया हुआ हो कार्य सिद्धिका देनेवाला होता है ॥४५॥ यह परिग्रह चित्तमें मूर्छाका करनेवाला है, कपट क्रोध मान लोभादिरूप सर्पका विल है, आशारूप अग्निके लिये काष्ठ है, तथा दुष्टग्रह ( पिशाच ) है ऐसा समझकर मन वचन कायकी शुद्धिसे मोहरूप वैरीके नाश करनेके लिये सर्व परिग्रहको छोड़कर और वैराग्यका चिन्तवन करता हुआ कुछ समय तक घर ही में रहे ।।४६-४७॥ सर्व आकुलता रहित होकर निराकुलतासे देवपूजनादि शुभ कर्मों में स्थिर ( निश्चल ) होकर अपने पुत्रका दिया हुआ भोजन वस्त्रादिका भोग करता हुआ शान्तिपूर्वक एकान्त स्थानमें रहे ॥४८॥ इस प्रकार मध्यम तीन वर्णी श्रावकोंका वर्णन किया। अब इस समय उत्कृष्ट भिक्षुक श्रावकोंके अनुमतिविरति तथा उद्दिष्ट विरति इस प्रकार जो दो भेद हैं उनका वर्णन किया जाता है ।। ४९|| नव प्रतिमाओंको धारण करनेवाला जो भव्यपुरुष परिग्रहमें तथा इह लोक सम्बन्धी सावद्य ( आरम्भ ) कर्ममें मन वचन कायसे अपनो सम्मति नहीं देता है वह धर्मात्मा अनुमति त्यागी उत्कृष्ट श्रावक है ॥५०॥ दशमी प्रतिमाधारो श्रावकको जिनचैत्यालयमें स्वाध्याय करना चाहिये और मध्याह्नकालकी सामायिक करने के बाद कोई बुलाने आवे तब अपने घर तथा दूसरोंके घर भोजन करनेको जाना चाहिये ॥५१।। उस समय जैसा कुछ भोजन मिले उसे केवल शरीरकी स्थितिके लिये करना चाहिये। क्योंकि यह शरीर मोक्षकी प्राप्तिका कारण है इसीलिये तो मोक्षाभिलाषी पुरुष इस शरीरको अपेक्षा करते हैं ।।५२।। वह इन्द्रियविजयी वशी पुरुष-अहो । आरम्भसे उत्पन्न होनेवाले और उद्दिष्ट ( मेरे उद्देश्यसे बनाये हुए ) आहारको मैं कब छोडगा और कब वह सुदिन होगा जिस दिन भिक्षावृत्तिरूप अमृतका आस्वादन करूंगा ऐसी अभिलाषा करता रहे ॥५३।। पञ्चाचार ( ज्ञानाचार, तपाचार, दर्शनाचार, वोर्याचार चारित्राचार ) के ग्रहण करनेको इच्छा करता हुआ अपने गृहसे निकलते समय पुत्र, माता, पिता, भाई, बन्धु आदिको यथा योग्य यों बोले ॥५४॥ इस असार संसारमें शुद्धात्मस्वरूपको छोड़कर और कोई मेरा सम्बन्धी नहीं है इस कारण दारुण मोहजालसे छूटकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy