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________________ १४७ धर्मसंग्रह श्रावकाचार सुखासनं च ताम्बूलं सूक्ष्मवस्त्रमलङ्कृतिः । मज्जनं दन्तकाष्ठं च मोक्तव्यं ब्रह्मचारिणा ॥३४ ब्रह्मचर्ये गुणानेकान्दोषान्मैथुनसेवने । ज्ञात्वाऽत्र दृढचित्तो यः स नन्द्याच्छावकाग्रणीः ॥३५ निव्यूढसप्तधर्मोऽङ्गिवधहेतून्करोति न । न कारयति कृष्यादीनारम्भरहितस्त्रिघा ॥३६ कदाचिज्जीवनाभावे निःसावद्यं करोत्यपि । व्यापारं धर्मसापेक्षमारम्भविरतोऽपि वा ॥३७ पापाद्विभ्यन्मुमुक्षुर्यो मोक्तुं भक्तमपीहते । प्रवर्तयेदसौ प्राणिसङ्घातघ्नीः कथं क्रियाः ॥३८ योऽष्टवतदृढो ग्रन्थान्मुञ्चतीमे न मेहकम् । नैतेषामिति बुद्धया स परिग्रहविरक्तधीः ॥३९ अथ योग्यं समाहूय सुतं वा गोत्रज प्रशान् । वदेदिदंतकं साक्षाज्जातिमुख्यसधर्मणाम् ॥४० अद्य यावन्मया वत्स ! रक्षितोऽयं गृहाश्रमः । जिहासो विरज्यैनं त्वमद्यार्हसि मे पदम् ॥४१ यः पुनाति निजाचारैः पितरः पूर्वजानिति । पुत्रः स गीयते वस्तुः सुतव्याजादरिः परः ॥४२ प्रपपूषोनिजात्मानं सुविधेरिव केशवः। उपस्करोति यो वस्तुः पुत्रः सोऽत्र प्रशस्यते ॥४३ तदेतन्मे धतं पोष्यं धयं चापि स्वसाकुरु । श्रेयोऽथिनां परं पथ्या सेयं सकलदत्तिका ॥४४ करनेका स्पर्श कभी अच्छा नहीं हो सकता ।।३३।। ब्रह्मचर्य प्रतिमाके धारक भव्य पुरुषोंकोसुखासन, ताम्बूल (पान), महीन वस्त्र, भूषण, मज्जन तथा काष्ठादिस दतौन करना आदि त्यागना चाहिये ॥३४॥ ब्रह्मचर्यके धारण करनेसे अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है तथा मैथुन सेवनमें अनेक दोष हैं ऐसा समझ कर जो बुद्धिमान अपने चित्तको किसी प्रकार विकल न करके निश्चल चित्त है वह श्रावक श्रेष्ठ भव्यात्मा सदा वृद्धिको प्राप्त होवे यह हमारी आन्तरङ्गिक अभिलाषा है ॥३५॥ पूर्वकी सात प्रतिमाका पालन करनेवाला जो धर्मात्मा पुरुष मन वचन कायसे हिंसाके कारण कृषि आदिको नहीं करता है और न दूसरोंसे कराता है उसे आरमा त्याग-प्रतिमाका धारक श्रावक कहना चाहिये ॥३६।। आरम्भ-त्याग-प्रतिमाधारी श्रावक-किसी समय जीवन- निर्वाहका दूसरा उपाय न रहनेसे पाप-रहित और जिसके करनेसे धर्ममें किसी प्रकारकी बाधा न आवे ऐसे व्यापारको भी कर सकता है। भावार्थ-आरम्भ-त्यागी श्रावकको भी जीविकाके अभावमें धर्मसे अविरोधी और पाप रहित व्यापारके करने में किसी प्रकारकी हानि नहीं है ॥३७॥ जो मोक्षाभिलाषी भव्य परुष पापसे भयभीत होता हआ भोजनके भी त्यागनेको इच्छा करता है वही दयाल पुरुष जोवोंके नाश करनेकी क्रियाओंको कैसे कर सकता है ? कदापि नहीं कर सकता ।।३८॥ पहलेकी आठ प्रतिमाओंके धारण करने में निश्चल चित्त जो भव्य पुरुष 'ये परिग्रह मेरे नहीं हैं और न में इनका हूँ' ऐसा समझकर परिग्रहका त्याग करता है उसे ही परिग्रह-त्याग-प्रतिमाका धारी श्रावक कहना चाहिये ॥३९।। परिग्रह विरक्त भव्य पुरुषको चाहिये-अपने योग्य पुत्रको अथवा किसी योग्य गोत्रमें उत्पन्न होनेवालेको (दत्तक पुत्रको) बुलाकर अपनी जातिके प्रधान साधर्मी लोगोंके सामने उसे इस तरह कहे ।।४०|| हे वत्स ! आज तक मैंने इस गृहस्थाश्रमका रक्षण किया, परन्तु अब वैराग्यको प्राप्त होकर इस गहस्थाश्रमको छोड़नेवाले मेरे स्थानके तुम योग्य हो ॥४१॥ जो अपने पवित्र आचरण (कर्तव्य कर्म) से अपने माता पितादिको पवित्र करता है वही तो वास्तविक पुत्र है और जिसने अपना आचरण अपने पूर्व पुरुषोंके अनुसार पवित्र न रक्खा उनकी आज्ञाका पालन न किया वह पुत्र नहीं है किन्तु यों समझो कि पुत्र रूपमें वह पिताका शत्रु पैदा हुआ है ।।४२।। सुविधिनाम राजाके केशव नामक पुत्रके समान अपनो आत्माको उत्कर्ष देनेवाले पिताको जो अपने सदाचारोंसे अलंकृत करता है वही पुत्र इस संसारमें प्रशंसा करनेके योग्य है ।।४३।। हे वत्स ! मेरे ये धन, पोष्य-स्त्री, जननी आदि तथा धयं-चैत्यालय आदि जो धर्म पदार्थ हैं उन्हें तुम अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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