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________________ श्रावकाचार-संग्रह रात्रावपि ऋतौ सेवा सापि सन्तानहेतवे। क्रियतां वशिना नार्याः पर्वादिषु न जातुचित् ॥२४ एवं षट्प्रतिमा यावच्छ्रावका गृहिणोऽधमाः । निरुच्यन्तेऽधुना मध्यास्त्रयोऽन्ये वणिनोऽपि च ॥२५ सूक्ष्मजन्तुगणाकोण योनिरन्ध्र मलाविलम् । पश्यन्यः संगतो नार्याः कष्टादिमयतोऽपि च ॥२६ ।। विरक्तो यो भवेत्प्राज्ञस्त्रियोगैस्त्रिकृतादिभिः । पूर्वषड्वतनिर्वाही ब्रह्मचार्यत्र स स्मृतः ॥२७ अस्त्यात्मानन्तशक्त्यात्मेति श्रुतिर्वस्तु न स्तुतिः । यत्स्ववीर्ययुगात्मैव जगन्मलं स्मरं जयेत् ॥२८ वर्ण्यते भूतले केन माहात्म्यं ब्रह्मचारिणाम् । रौद्राः शाम्यन्ति यन्नाम्ना विद्याः सिद्धचन्त्यनेकशः ॥२९ बुद्धिऋद्धयादयोऽनेका निर्मलब्रह्मचारिणान् । मुनीनां किल जायन्ते परासां गणनापि का ॥३० दुःखदं दुःख दुःखमहो नार्यसेवनम् । खेदाप्यत्वादघौघैकवर्द्धनादगात्रपीडनात् ॥३१ अग्निस्तुप्यति नो काष्ठारिधिनं नदीचयैः । तथाऽयमेभिरात्मापि विषयैः सङ्गसम्भवः ॥३२ विषं भुक्तं वरं लोके झम्पापातोऽग्निकुण्डके । रमणीरमणस्पर्शो रमणीयो नहि कहिचित् ॥३३ आश्चर्यको बात है -देखो ! सन्तोषी पुरुषोंकी कामविकारके नाश करनेकी बुद्धिमानी, जो जिन स्त्रियोंका नाम मात्र आनन्दके लिये होता है वे स्त्रियाँ देखो हुई भी उन पुरुषोंको पत्थरके समान निस्सार मालूम पड़ती हैं ।।२३।। इन्द्रिय विजयी पुरुषोंको, ऋतुमती (रजस्वला) होकर चतुर्थ दिन स्नान करने पर रात्रिमें भी स्त्रियोंका सेवन केवल सन्तानके लिये करना चाहिये और पर्वादिमें तो कभी नहीं करना चाहिये ॥२४॥ इस प्रकार छह प्रतिमा पर्यन्त गृहस्थ जघन्य श्रावक कहे जाते हैं । अब तीन प्रकारके मध्यम श्रावकोंका वर्णन किया जाता है जिन्हें वर्णी या ब्रह्मचारी भी कहते हैं ।।२५।। पूर्वकी छह प्रतिमाओंका भले प्रकार निर्वाह करनेवाला जो बुद्धिमान-स्त्रियोंके योनिस्थानको सूक्ष्म जीवोंके समहोंसे पूर्ण तथा मल सहित देखकर नाना प्रकारके दुःखादिको सहन करता हुआ भी मन वचन कायसे तथा कृत कारित अनुमोदनासे स्त्रियोंसे विरक्त होता है उसी भव्यात्माको नियमसे ब्रह्मचारी समझना चाहिये ॥२६-२७।। "आत्मा अनन्तशक्तिशाली है' यह जो शास्त्रोंको श्रुति है वह वास्तवमें ठीक है यह केवल स्तुति हो सो नहीं है । यही कारण है किजगत्को जीतने वाले कामदेवका स्ववोर्य (पराक्रम) युक्त आत्मा (ब्रह्मचारो) ही जीतता है ।।२८।। अहो ! इस पृथ्वीतलमें ऐसा कोन है जो ब्रह्मचारी पुरुषोंका माहात्म्य (प्रभाव) वर्णन कर सके ! जिनके नाममात्रका स्मरण करनेसे चाहे कितना ही कोई क्रूर क्यों न हो वह भी शान्त हो जाता है और जिन्हें अनेक उत्तम विद्याएँ स्वयं सिद्ध हो जाती हैं ||२९|| विशुद्ध ब्रह्मचयके धारण करनेवाले मुनियोंको बुद्धि, ऋद्धि आदि अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होतो हैं तो और साधारण वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ? ॥३०।। अहो ! स्त्रियोंके शरीरके सेवन में अत्यन्त खेद होता है इसलिये तो दुःखको पैदा करनेवाला है, पाप समूहकी वृद्धि होनेसे दुःखोंका देने वाला है और शरीरको पोड़ा जनक होनेसे दुःख स्वरूप है इसलिये ब्रह्मचारी पुरुषोंको स्त्रियोंके शरीरका सेवन नहीं करना चाहिये ॥३१॥ अग्निमें कितना भी काष्ठ क्यों न होमा जावे वह कभी सन्तोष वृत्तिको धारण नहीं करनेकी, समुद्र में नदियोंके समहके समह आकर क्यों न मिलें वह कभी पर्याप्त दशाको प्राप्त नहीं होनेका, उसी तरह यह आत्मा दिनों दिन स्त्रियोंके सङ्गतिसे होने वाले कितने ही विषयोंका क्यों न सेवन करे फिर भी विषयोंसे कभी तृप्ति नहीं होगी ॥३२।। हलाहल विषका खाना बहुत अच्छा है तथा झंपापात लेकर अग्नि कुण्डमें कूद जाना अच्छा है परन्तु स्त्रियोंके साथमें रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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