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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार प्रतिमायोगतो रात्रि ये नयन्तोऽधविच्छिदे । क्षोम्यन्ते नोपसर्गेण केनापि स्तोमि तानहम् ॥११ धन्यास्ते श्रावकाः प्राग्ये वारिषेणसुदर्शनौ । जिनदत्तादयोऽन्येऽपि निष्कम्पाः प्रोषषवते ॥१२ प्राक्चतुःप्रतिमासिद्धो यावज्जीवं त्यजेत्रिधा । सचित्तभोजनं स स्याद्दयावान्पञ्चमो गृहो ॥१३ सह चित्तेन बोधेन वर्तते हि सचित्तकम् । यन्मलत्वेन प्राग्मुक्तं तदिदानी व्रतात्मतः ॥१४ शाकबोजफलाम्बूनि लवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रहयोऽङ्गिपञ्चत्वभीतः संयमवान्भवेत् ॥१५ कालाग्नियन्त्रपक्वं यत्फलबोजानि भक्षितुम् । वर्णगन्धरसस्पर्शव्यावृत्तं जलमर्हति ॥१६ । हरितेष्वङ्करायेषु सन्त्येवानन्तशोऽङ्गिन: । निगोता इति सार्वजं वचः प्रमाणयन्सुधीः ॥१७ पदापि संस्पृशंस्तानि कदाचिद्गाढतोऽर्थतः । योऽतिसंक्लिश्यते प्राणनाशेऽप्येष किमत्स्यति ॥१८ अहो तस्य जिनेन्द्रोक्तिनिर्णयोऽक्षजितिः सतः । अदृश्यजन्त्वपि हरिनात्ति यद्गदहानये ॥१९ प्राच्यपञ्चक्रियानिष्ठः स्त्रीसंयोगविरक्तधीः । त्रिधा योऽह्नि श्रियेन्न स्त्री रात्रिभक्तवतः स तु ॥२० एतद्युक्त्या किमायातं दिवा ब्रह्मवतं त्विति । रात्रौ भक्तञ्जनीसेवां यः कुर्याद्रात्रिभक्तिकः ॥२१ अन्ये चाहदिवा ब्रह्मचर्य चानशनं निशि। पालयेत्स भवेत्षष्ठः श्रावको रात्रिभक्तिकः ॥२२ अहो सन्तोषिणां चित्रां संकल्पोच्छोदचातुरी । पन्नामापि मुदेऽप्येषा येन दृष्टा शिलायते । २३ प्रोषध व्रत धारण किया है वह भव्यात्मा दूमरे वस्त्रवेष्टित मुनिके समान शोभाको प्राप्त होता है ।।१०।। जो आत्महिताभिलाषो प्रोषधव्रती अपने पूर्वकृत कर्मोंके नाशके लिये प्रतिमायोगसे रात्रिको व्यतीत करते हुए किसी प्रकारके दारुण उपसर्गादिसे भी क्षोभको प्राप्त नहीं होते हैं मैं उन महात्माओंका भक्तिपूर्वक स्तवन करता हूँ ॥११॥ अहो ! प्राचीन कालमें वारिषेण, सुदर्शन तथा जिनदत्त आदि पुण्यशाली श्रावकोंको धन्य है जो असर्गादिके आनेपर भी प्रोषधव्रतमें निश्चल रहे ॥१२॥ पहली चार प्रतिमाओंके धारण करनेमें सिद्ध जो भव्य पुरुष मन वचन तथा कायसे यावज्जीवन सचित्त भोजनका त्याग करता है वह दयालु पुरुष नियमसे सचित्तत्यागप्रतिमाका धारी पंचम गृहस्थ कहलाने योग्य है ॥१३॥ जो वस्तु चित्त अथवा बोधके साथ रहनेवाली है उसे सचित्त कहते हैं। जो सचित्त वस्तु पहले (भोगोपभोग परिमाण व्रतके समय) अतोचार रूपमें छोड़ी गई थी वही छोड़ना इस समय प्रतिमावत माना गया है ॥१४॥ जिसके हृदयमें दया है जो जीवोंकी हिंसासे भयभीत है उसे शाक, बीजफल, जल, लवण आदि अप्रासुक वस्तुओंका त्याग कर संयमवान् होना चाहिए ।।१५।। समय, अग्नि तथा यन्त्र आदिसे पके हुए फल, बीज आदि सचित्त वस्तुएँ तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादिसे व्यावत (प्रासक) हआ जल खाने और पीनेके योग्य है॥१६॥ जो भव्यात्मा "हरित अंकुरादिम निगोदिया अनन्ते जोव हैं" सर्वज्ञ भगवान्के इन वचनोंको प्रमाण करता हुआ अपने चरण मात्रसे भी उन अंकुरोंका स्पर्श करता हुआ अत्यन्त दुःखी होता है वह पुण्यशाली, पुरुष उन्हें कैसे भक्षण करेगा? अर्थात् कभी नहीं करेगा ॥१७-१८।। अहो! यह बात आश्चर्यको है-देखो। सज्जन पुरुषोंका जिनदेवके कथनमें विश्वास तथा इन्द्रिय दमन, जो जिस हरित वस्तुमें जीवोंके न दिखने पर भी उसे रोगके नाशके लिये भी नहीं खाते हैं ।।१९।। पूर्वकी पाँच क्रिया (प्रतिमाओं) में तत्पर तथा स्त्रियोंके सम्बन्धसे विरक्त जो पुरुष मन, वचन, कायसे दिन में स्त्रोका सेवन नहीं करता है वह रात्रि भक्त व्रती कहा जाता है ।।२०।। जो रात्रि में स्त्रोका सेवन करता है वह रात्रि भक्त व्रती है। ऐसा कहनेसे यही स्पष्ट अर्थ हुआ कि उसके दिन में ब्रह्मचर्य व्रत होता है ।।२१॥ कितने महर्षियोंका कहना है-दिनमें ब्रह्मचर्यको और रात्रिमें भोजनके त्यागको जो पालन करता है वह छठी प्रतिमाका धारी रात्रिभक्तव्रती कहा जाता है ।।२२।। अहो यह कितने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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