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________________ पञ्चमोऽधिकारः अथ सामायिकादीनां नवानां वच्मि लक्षणम् । प्रतिमानां नरेन्द्र ! त्वं सावधानमनाः शृणु ॥१ अहो सप्तकशीलेऽस्मिन्श्रावकावपरावपि । अन्तर्भूतौ च विज्ञेयो केषांचिच्छास्त्रयुक्तितः ॥२ ते चैवं प्रविवदन्त्यार्या द्वयं भोगोपभोगयोः । कृत्वा निक्षिप्य संन्यासमेवं स्यात्सप्तशीलकम् ॥३ एतद्ग्रन्थानुसारेण समता प्रोषधवतम् । यच्छीलं तदद्वयं स्यातां प्रतिमे व्रतरूपतः ॥४ मूलोत्तरगुणवातपूर्णः सम्यक्त्वपूतधोः । साम्यं त्रिसन्यं कष्टेऽपि भजन्सामायिकी भवेत् ॥५ कुर्वन्यथोक्तं सन्ध्यासु कृतकर्माऽऽसमाप्तितः। समाधेर्जातु नापैति कृच्छ सामायिकी हि सः ॥६ सामायिकवते सौधशिखरे कलशस्तदा। तेनारोपि यदैषा भूर्येनाश्रायि महात्मना ॥७ प्राग्यत्सामायिकं शीलं तद्यथा प्रतिमाश्रितः । व्रतं तथा प्रोषधोपवासोऽपीत्यत्र युक्तगीः ॥८ यः प्राग्धर्मत्रयारूढः प्रोषधानशनव्रतम् । यावन्न च्यवते साम्यात्स भवेत्प्रोषधव्रती ॥९ मुक्तसावधभुक्त्यङ्गसंस्कारः प्रोषधोत्तमम् । आश्रितो वस्त्रसंगूढमुनिवद्भाति दूरतः ॥१० व्रत प्रतिमाके वर्णनके अनन्तर सामायिकादि नव प्रतिमाओं के लक्षण कहता हूँ, हे नरेन्द्र ! तम सावधान मन होकर सुनो ॥११॥ कितने ही आचार्योंके मतसे शास्त्रकी युक्तिके अनुसार शोलसप्तकमें सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक तथा प्रोषध प्रतिमाधारी श्रावक भी अन्तर्भत हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥२॥ उन महर्षियोंका यह कहना है कि इस शील सप्तकमें भोगोपभोग व्रतके भोग और उपभोग ऐसे दो विकल्प करके और संन्यास अर्थात्-सल्लेखना और मिलाकर शीलसप्तक होता है। भावार्थ-कुछ आचार्य भोगपरिमाणव्रत, उपभोगपरिमाणवत, अतिथिसंविभाग और संन्यास ( सल्लेखना ) इन चार शिक्षा व्रतोंके साथ दिग्वत, देशावकाशिक व्रत और अनर्थदण्ड विरतिव्रत इन तीन गुणव्रतोंको मिलाकर शीलसप्तक कहते हैं। तथा सामायिक व्रतको तीसरी प्रतिमा और प्रोषधवतको चौथी प्रतिमा मानते हैं ।।३।। किन्तु इस ग्रन्थके अनुसार तो सामायिक और प्रोषधव्रत जिस तरह शील स्वरूप वर्णित है वे दोनों अब व्रत रूपसे प्रतिमा है ॥४| मलगुण और उत्तरगुणके समूहसे पूर्ण, और जिसकी बुद्धि सम्यक्त्वसे पवित्र है जो प्रातःकाल, मध्याह्न काल तथा सायंकाल इस तरह तीनों काल दुःखादिके होने पर भी समता भावका सेवन करता है वह सामायिक प्रतिमाका धारी श्रावक होता है ॥५॥ तीनों सन्ध्याओंमें सामायिक में करने योग्य कर्मको समाप्तिपर्यन्त करता हुआ नाना प्रकारके उपसर्गादिकोंके आने पर भी सामायिकसे कभी च्युत नहीं होता है वह नियमसे सामायिक प्रतिमाका धारी श्रावक होता है ।।६।। उस भव्यपुरुषने सामायिक व्रत रूप प्रासादके शिखर ऊपर समझो कि-कलश चढाया है जिस महात्मा पुरुषने जो यह सामायिक प्रतिमारूप पृथ्वीका आश्रय किया है ।।७।। पहले व्रतप्रतिमाके अनुष्ठानके समयमें शील रूप जो सामायिक था वह जैसे अब प्रतिमा रूप है उसी तरह जो प्रोषधोपवास पहले शील रूप था वही अब प्रतिमा रूप समझना चाहिये ॥८॥ जो पहली दर्शनादि तीन प्रतिमाओंका धारण करनेवाला प्रोषधवती सोलह पहर तक साम्य भावसे च्युत नहीं होता है वह प्रोषध व्रती कहा जाता है ॥९॥ जिसने आरम्भ कर्म, भोजन, तथा शरीर संस्कारादि सब छोड़ दिये हैं और उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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