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________________ १४९ धर्मसंग्रह श्रावकाचार भवद्धिर्मयि क्षन्तव्यं मया क्षान्तं भवत्सु च । तद्यत्किञ्चित्समुद्भूतं मिथो जल्पनमावयोः ॥५६ इत्युदतस्तैरनुज्ञाता महानिर्गत्य सोत्कधीः । वनं गत्वा गुरोरन्ते याचेतोत्कृष्टतत्पदम् ॥५७ एवं चर्चा गृहत्यागावसानां नैष्ठिकोत्तमः । समाप्य साधकत्वाय पदं पौरस्त्यमाश्रयेत् ॥५८ दशधाधरित्रसंभिन्नश्वसन्मोहमृगाधिपः । पिण् उमुद्दिष्टमुज्झन्स्यादुत्कष्ट. श्रावकोऽन्तिमः ॥५९ उत्कृष्टोऽसौ द्विधा ज्ञेयः प्रथमो द्वितीयस्तथा। प्रथमस्य स्वरूपं तु वचम्यहं त्व निशामय ॥६० श्वेतैकपटकोपीनो वस्त्रादिष्प्रतिलेखनः । कर्तर्या वा क्षुरेणासौ कारयेत्केशमुण्डनम् ॥६१ एषोऽपि द्विविधो सूत्रे मतो गुरुपदाश्रितः । बहुभिक्षारतस्त्वेकः परः स्यादेकभिक्षाकः ॥६२ आद्यः पात्रेऽथवा पाणौ भुङ्क्ते य उपविश्य वै । चतुविधोपवासं च कुर्यात्पर्वसु निश्चयात् ॥६३ पात्रं प्रक्षाल्य भिक्षायां प्रविशेद्दातृमन्दिरम् । स स्थित्वा प्राङ्गणे भिक्षां धर्मलाभेना मार्गयेत् ॥६४ लाभालाभे ततस्तुल्यो निगंत्यैत्यन्यमन्दिरम् । पात्रं प्रदर्श्य मौनेन तिष्ठेत्तत्र क्षणं स्थिरः ॥६५ प्रार्थयेद्यदि दाता तं स्वामिन्नत्र व भुव हि । तदा निजाशनं भुक्त्वा पश्चात्तस्य ग्रसेद्रुचौ ॥६६ अथ न प्रायद्भिक्षा भ्रमेत्स्वोदरपूरणीम् । यावदेकगृहं गत्वा याचेत प्रासुकं जलम् ॥६७ यत्किञ्चित्पतितं पात्रे भुक्त्वा संशोध्य युक्तितः । स्वयं प्रमाज्यं तत्पात्रं गच्छेदाराद्गुरोर्वनम् ॥६८ मोक्षकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेवाले मुझे आप लोग छोड़ें ॥५५।। यदि आपमें और मेरे में परस्पर कुछ बोलना हुआ हो तो उसके लिये मुझे आप क्षमा करें और मैंने भी आप लोगोंको क्षमा किया ॥५६।। इस प्रकार प्रार्थना किये हुए अपने कुटुम्बी लोगोंकी आज्ञा लेकर गृहसे निकलकर वनमें जाय और वहाँ गुरुओंके पास स्थित होकर उनसे उत्कृष्ट श्रावक पदकी याचना (प्रार्थना) करे ॥५७।। नैष्ठिकाग्रणी श्रावक इस प्रकार गृहत्याग पर्यन्त क्रियाओंको पूर्ण करके साधक होने के लिये आगेकी ग्यारहवीं प्रतिमाको धारण करे ॥५८।। जिसका-उपर्युक्त दस प्रतिमारूप शस्त्रसे घायल हुआ मोह रूप मगेन्द्र कुछ कुछ जीवित है और जिसने अपने निमित्तसे बनाये हुए आहारको छोड़ दिया है उसे अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक समझना चाहिये ॥५९।। प्रथम श्रावक और द्वितीय श्रावक इस तरह उत्कृष्ट श्रावकके दो विकल्प (भेद) हैं । हे महाराज श्रेणिक ! पहले प्रथम श्रावकका स्वरूप कहता हूँ उसे तुम सुनो ।।६०॥ प्रथम श्रावकको-श्वेत वस्त्रकी लंगोट तथा श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिये, वस्त्रादिको पिच्छी रखना चाहिए और कतरनी तथा उस्तरेसे केशोंका मुण्डन करवाना चाहिये ॥६१।। गुरुके चरण समीप रहनेवाला यह प्रथम श्रावक भी दो प्रकार है-एक तो बहुत घरोंसे भिक्षा लेनेवाला और दूसरा एक ही घरमें भिक्षा करनेवाला ॥२॥ पहला श्रावक पात्र भोजन, बर्तन में अथवा हाथमें बैठकर भोजन करे, तथा पर्वो में चार प्रकारका उपवास करे ॥६३।। उसे चाहिये कि वह पहले ही अपने पात्रको जलसे धोकर भिक्षाके लिये दाताके घर में जावे और आंगणमें ठहरकर “धर्मलाभ" यह कहकर भिक्षाकी याचना करे ॥६४॥ लाभ तथा अलाभमें समान भाव रखकर अर्थात्-किसी तरहका विषाद न करके दूसरे दाताके धर जावे और अपना पात्र दिखाकर क्षणमात्र मौन-पूर्वक वहाँपर ठहरे ॥६५।। यदि दाता उस समय प्रार्थना करे कि- हे नाथ ! यहींपर आप भोजन करें तो अपने लाये हुए भोजनको करके फिर भी यदि कुछ इच्छा हो तो उस दाताकी प्रार्थनासे उसका भी भोजन करे ॥६६|| यदि दाता प्रार्थना न करे तो अपने उदरकी पूर्ति जबतक न हो तबतक भिक्षाके अर्थ भ्रमण करे और किसी एकके घरपर जाकर प्रासुक जलकी याचना करे ॥६७|| उस समय जो कुछ पात्र में भोजन मिले उसे देख-शोधकर भोजन करे और अपने हाथसे पात्रको शुद्ध करके गुरुके समीप वनमें जावे ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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