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________________ १२७ धर्मसंग्रह श्रावकाचार ग्रामादौ वस्तु चान्यस्य पतितं विस्मृतं धृतम् । गृह्यते यन्न लोभात्तत्स्तयत्यागमणुव्रतम् ॥५४ यतोऽपहरता द्रव्यं प्राणास्तत्स्वामिनो हताः। द्रव्यमेव जने प्राणा हिसावत्तत्त्यजेत्ततः ॥५५ सर्वभोग्यतृणाम्ब्वादे ददीत ददीत नो। संक्लेशाभिनिवेशेन तृतीयाणुव्रती परम् ॥५६ निधानादिधनं ग्राह्यं नास्वामिकमितीच्छया। अनाथं हि धनं लोके देशपालस्य भूपतेः ॥५७ निधानादिधनग्नाही सदोषश्चौरवद्भवम् । भूपेन विहितं दण्डं सहतेऽध्यक्षमीक्ष्यते ॥५८ मम स्याद्वा न वेति स्वं स्वमपि द्वापरावहम् । यदा तदा गृह्यमाणं जायते व्रतहानये ॥५९ अतीचारा व्रते चाऽस्मिन् कईमा इव वारिणि । कथ्यमाना निवार्यन्तां तृतीयव्रतधारिणा ॥६० स्तेनसंगाहृतादानविरुद्ध राज्यलञ्जनम् । हीनाधिकतुलामानं व्यापारप्रतिरूपकः ॥६१ स्मरपीडाप्रतीकारो ब्रह्मैव न रतिः स्त्रिया । इत्यविश्वस्तचित्तोऽसौ श्रयेत निजभामिनीम् ॥६२ परस्त्रीरमणं यत्र न कुर्यान्न च कारयेत् । अब्रह्मवर्जनं नाम स्थूलं तुर्यं च तद्वतम् ॥६३ - प्रकट करना, खोटा लेख करना, रखे हए द्रव्यका हरण कर लेना, तथा संकेत आकारादिसे दूसरोंके अभिप्रायको जानकर उसे दूसरोंको कह देना तथा अपने मित्रादिकी गुप्त वार्ता प्रगट कर देनाये पाँच दोष ( अतीचार ) हैं इन्हें सत्याणुव्रतके धारक पुरुषोंको छोड़ना चाहिये ॥५३॥ लोभके वशीभूत होकर ग्राम, मार्गादिमें दूसरोंकी गिरी हुई, भूली हुई तथा धरी हुई वस्तुके नहीं ग्रहण करनेको स्तेयत्याग नाम तीसरा अणुव्रत कहते हैं ॥५४॥ जिस पुरुषने दूसरोंका धन हरण किया है उसने केवल धन ही नहीं हरण किया है, किन्तु धनके साथ ही उसने धनके मालिकके प्राणोंको भी हर लिया है । क्योंकि लोकमें द्रव्य प्राणस्वरूप है । इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिये कि हिंसाके समान दुःख देनेवाली चोरीका त्याग करें ॥५५।। सर्व साधारणके उपभोग करने योग्य ऐसे तृण तथा जल आदि जो वस्तुएं हैं उन्हें भी स्वामीकी आज्ञाके विना स्तेयत्यागवतके धारक पुरुषोंको न स्वयं लेना चाहिये और न लेकर दूसरोंको देना चाहिये ॥५६।। इस धनका कोई मालिक नहीं है ऐसा समझ कर जमीनमें गड़ा हुआ धन आदि नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि जो धन अनाथ होता है अर्थात् जिस धनका कोई स्वामी नहीं होता है वह धन उस देशके राजाका होता है ॥५॥ निधानादिके धनको ग्रहण करनेवाला पुरुष नियमसे चोरके समान दोष करके सहित है और उसे राजाका दिया हुआ दंड भोगना पड़ता है तथा कारागृहमें जाना पड़ता है। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है ।।५८|| यह धन मेरा है अथवा नहीं है, इस प्रकार सन्देह करानेवाला खास अपना भी धन जिस किसी समय ग्रहण किया जाता है तभी वह स्तेयत्यागवतकी हानिके लिये होता है ।।५९|| जिस प्रकार जलमें कीचड़ होता है उसी तरह अचौर्य व्रतमें मलीनताके कारण ऐसे जो अतीचार हैं स्तेयत्यागवतके धारक पुरुषोंको उन्हें छोड़ना चाहिये ॥६०॥ चोरी करनेका उपाय बतलाना, चोरीका द्रव्य लेना, राजाकी आज्ञाका उल्लंघन करना, तोलनेके परिमाण ( बाट ) को हीनाधिक रखना। और अधिक कीमतकी वस्तुमें थोड़ी कोमतकी वस्तु मिलाना ये पाँच स्तेयत्यागवतके अतीचार हैं। चोरोके त्याग करनेवालोंको इन्हें छोड़ देना चाहिये ॥६१।। कामकी पीडाके दूर करनेका उपाय ब्रह्मचर्यका धारण करना है, किन्तु स्त्रियोंके साथ रमण नहीं। इस तरह जिस पुरुषका चित्त विश्वासको प्राप्त नहीं है उसे चाहिये कि वह अपनी स्त्रीका ही सेवन करे ॥६२॥ परवनिताओंके साथ न रमण करना चाहिये और न दूसरोंको कराना चाहिये। इसे ही स्थूल परस्त्रीत्याग नाम चौथा अणुव्रत कहते हैं ॥६३।। परस्त्री-त्यागवतके धारण करनेवाले पुरुषोंको चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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