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________________ १२६ श्रावकाचार-संग्रह साधुौनान्मनःशुद्धि लभते शुक्लदायिनीम् । युगपद्वाक्यसिद्धि च ौलोक्याणुगृहानुगाम् ।।४६ मौने कृते कृतस्तेन श्रुतस्य विनयो ह्यतः । तेन सम्प्राप्यते ज्ञानं केवलं केवलाच्छिवः ॥४७ उद्योतनं मखेनैकघंटादानं जिनालये । कादाचित्कालिके मौने निर्वाहः सर्वदातने ॥४८ सभ्यैः पृष्टोऽपि न ब्रूयाद्विवादे ह्यलोकं वचः । भयाद्वेषाद्गुरुस्नेहात्स्थलं सत्यमिदं व्रतम् ।।४९ कुमारीभूगवालीकं वित्तन्यासापलापवत् । न सत्याणुव्रती ब्रूयाद्धिसावत्प्राणिबाधनम् ॥५० धर्मेण दूषितं वाक्यं स्वान्यापदि च यद्धवेत् । तत्सत्यमपि न यात्सत्याणुव्रतधारकः ॥५१ धार्मिकोद्धरणे जैनशासनोद्धरणे तथा । कदाचित्प्राणिरक्षार्थमसत्यं सत्यवद्वदेत् ॥५२ तदोषाः पञ्च मिथ्योपदेशकान्ताभिवादनम् । कूटलेखक्रियान्यासाहृती साकारमंत्रभित् ॥५३ प्रभावसे शुक्ल ध्यानको प्राप्त करानेवाली मनःशुद्धि तथा तीन लोकमें अनुग्रह करने वाली वचन शुद्धिको एक साथ प्राप्त होते हैं ॥४६॥ जिस पुरुषने मौनव्रत धारण किया है उसने मौनव्रत ही धारण नहीं किया है किन्तु इसके साथ ही श्रुत (शास्त्र) का भी विनय किया है । इसलिये मौनव्रत धारण करनेवाले नियमसे पहले लोकालोकके प्रकाशक केवलज्ञानको प्राप्त करके फिर मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥४७॥ जिन पुरुषोंने कालकी मर्यादा लिये मौनव्रत धारण किया है उन्हें जिनपूजनादि उत्सव करके मौनव्रतका उद्योतन (उद्यापन) करना चाहिये। तथा जिनालयमें एक घंटा दान देना चाहिये। और जिन महात्मा पुरुषोंने आजीवनके लिये मौनव्रत धारण किया है उन्हें तो बस आजीवन पर्यन्त ठीक रीतिसे उसका पालन करना चाहिये उनके लिये यही उद्यापन है ॥४८॥ सभ्य पुरुषोंके पूछने पर भी विवादमें किसीके भयसे द्वेषसे तथा अपने पिता आदिके स्नेहसे झूठ वचन नहीं बोलनेको स्थूल सत्य व्रत कहते हैं ॥४९।। सत्याणुव्रती पुरुषोंकोहिंसाके समान जीवोंको दुःख देनेवाली कुमारी-अलीक ( कन्या सम्बन्धी झूठ) भूअलीक ( पृथ्वी सम्बन्धी झूठ ) गवालीक ( गाय सम्बन्धी झूठ ) नहीं बोलना चाहिये । तथा दूसरेको रखी हुई धरोहरके सम्बन्धमें भी भूलसे झूठ नहीं बोलना चाहिये । विशेषार्थ-कुमारी अलीक-यह कन्या दूसरी जातिकी होनेपर भी हमारी जातिकी है, अथवा सजातीय होने पर भी हमारी जातिकी नहीं है। इसी तरह कन्यामें जो गुण दोष हैं उनका नहीं बताना, अथवा न होने पर भी बताना इत्यादि । कुमारी अलीक इस शब्दसे केवल कुमारो, का ही ग्रहण नहीं करना चाहिये यह तो उपलक्षण मात्र है किन्तु कुमारी, कुमार ( बालक ) तथा और कोई द्विपद मनुष्यादि इन सबका ग्रहण समझना चाहिये। भूअलीक-जमीन, वृक्ष, अथवा और कोई स्थावर पदार्थ जो दूसरेके हैं उन्हें अपने कहना अथवा अपने होने पर भी अपने नहीं कहना इत्यादि यहाँ भी भू यह शब्द उपलक्षण है इससे स्थावर पदार्थ मात्रका ग्रहण है। गवालीक--गाय आदि चतुष्पाद जीवोंमें गुण अथवा दोष रहने पर भी कहना कि नहीं है अथवा न रहने पर उनका अस्तित्व बताना इत्यादि यहाँ भी गाय शब्दसे सर्व चतुष्पद जीवोंका ग्रहण समझना चाहिये । लोकमें ये तीनों अलीक प्रसिद्ध हैं इसलिये इन तीनोंके त्यागनेका उपदेश है ।।५०॥ सत्याणुव्रतके धारक पुरुषोंको चाहिये कि जो वचन धर्मसे विरुद्ध हो तथा जिसके बोलनेसे अपने ऊपर तथा दूसरोंके ऊपर आपत्ति आती हो ऐसे सत्य वचनको भी न बोले ॥५१| किसी धर्मात्मा पुरुषके ऊपर किसी तरहकी आपत्ति अथवा और कोई बाधा आती हो तो उसके दूर करनेके अर्थ, जिन धर्मके उद्धारके अर्थ तथा प्राणियोंकी जीव रक्षाके लिये असत्यको भी सत्यके समान बोलना चाहिये ॥५२॥ सत्याणुव्रतके, मिथ्या उपदेश देना, स्त्री पुरुषोंके गुप्त कृत्यका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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