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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार १२५ दिवाद्यन्तमुहूत्तौ योऽत्ति त्यक्त्वा रात्रिवत्सदा । स्वजन्माद्ध नयन्सोऽत्रोपवासैर्वर्ण्यते कियत् ॥३३ वस्त्रोणातिसुपीनेन गालितं तत्पिबेज्जलम् । अहिंसावतरक्षायै मांसदोषापनोदने ॥३४ अम्बुगालितशेषं तन्न क्षिपेत्क्वचिदन्यतः । तथा कुपजलं नद्यां तज्जलं कूपवारिणि ॥३५ तदर्द्धप्रहराद्ध्वं पुनर्गालितमाचमेत् । शौचस्नानादिकुर्यान्न पयसा गालितं विना ॥३६ अतिप्रसंगनिक्षेप्तुं वृद्धि नेतुं तपस्तथा । व्रतसस्यवती भुक्तेरन्तरायानवेद्गृही ॥३७ बहुभिः कीटकाद्यैः संश्लिष्टमन्नं परित्यजेत । मृतजीवश्चजीवद्धिविवेक्तं यन्न शक्यते ॥३८ आर्द्रचर्मास्थिमांसासूक्सुराविष्टाङ्गिहिसनाम । दृष्ट्वाऽऽहारं न भुञ्जीत व्रतशुद्धः कदाचन ॥३९ चर्मादिपशुपञ्चाक्षव्रतमुक्तरजस्वला-रोमपक्षनखादीनां स्पर्शनाद्धोजनं त्यजेत् ॥४० श्रुत्वा मांसादिनिन्द्याह्वां मरणाक्रन्दनस्वरम् । वह्निदाहादिकोत्पातं न जिमेद्वतशुद्धये ॥४१ पलं रुधिरमित्यादीदृक्षं स्यादिति चिन्तनात । वतिनो भोक्तुमर्हन्नो प्रत्याख्यातादनात्तथा ॥४२ तथा मौनं विधातव्यं वतिना मानवर्द्धनम् । वाग्दोषहानये द्वेधा कादाचित्कं सदातनम् ॥४३ भोजन पूजन स्नान हदन मूत्रणं तथा । आवश्यक रति नार्याः कुर्यान्मौनेन तद्बती ॥४४ हुंकारो हस्तसंज्ञा च भुक्तो भूचापचालनम् । गृद्धये पुरोऽनु च क्लेशो न कार्यो मौनधारिणा ॥४५ रात भोजन करते रहते हैं ॥३२॥ जो पुरुष रात्रि भोजनके समान दिनके आदि मुहूर्त तथा अन्तिम मुहूर्तको छोड़ कर भोजन करता है वह इस प्रकार अपने आधे जन्मको उपवाससे व्यतीत करता है, उस भव्यात्मा दयालुका हम कहाँ तक वर्णन करें ॥३३॥ अपने अहिंसाणुव्रतकी रक्षाके लिये तथा मांसके दोषको नाश करनेके अर्थ अत्यन्त गाढ़े वस्त्रसे छाना हुआ जल पीना चाहिये ।।३४।। जल छाननेके बाद जो उस छन्ने में बाकी जल बचता है उसे जमीन वगैरह पर न डाले तथा कुँएका जल नदीमें और नदीका जल कुँएमें भी न डाले ॥३५।। तथा आधे प्रहरके बाद फिर जल छान कर पीने और शौच तथा स्नानादि विना छाने जलसे न करें ॥३६॥ आगे होने वाली दुरवस्थाके दूर करनेको, तथा तप बढ़ानेके अर्थ गृहस्थोंको चाहिये कि-व्रतरूप धान्यके ऊपर छिलकेके समान भोजनमें आने वाले अन्तरायोंको छोड़े ॥३७॥ अनेक मरे हुए तथा जोते हुए जीवोंसे युक्त जो अन्न हो और जिन्हें दूर करना शक्य न हो उस भोजनको कभी नहीं खाना चाहिये ॥३८॥ जो लोग व्रत करके शुद्ध हैं अर्थात् व्रतोंके धारण करनेवाले हैं उन्हें चाहिये कि--गोला चर्म, हड्डी, मांस, खून, मदिरा, विष्टा तथा जीव हिंसा देखने पर आहार न करें ॥३९।। चर्म आदि अपवित्र पदार्थ, पञ्चेन्द्री पशु, व्रत-रहित पुरुष, रजस्वला स्त्री तथा रोम, पक्ष, नख आदि पदार्थोंका स्पर्श होनेसे भोजन छोड़ देना चाहिये ।।४०॥ मांस, मदिरा, अस्थि, मरण, रोनेकी आवाज, वह्निदाह तथा उत्पात आदि सुननेके बाद, व्रतशुद्धि चाहने वालोंको भोजन नहीं करना चाहिये ॥४१॥ भोजन करते समय यह अमुक भोज्य वस्तु माँस, रुधिर, मदिरा, अस्थि आदिके सदृश हैं ऐसा स्मरण होते ही , व्रती लोगोंको भोजन नहीं करना चाहिये तथा त्यागी वस्तुके खाते समय उसके याद आते ही उसे तुरन्त छोड़ देना चाहिए ।।४२।। व्रती पुरुषोंको अपने वचन दोष दूर करनेके लिये कालकी अवधि तक अथवा जीवन-पर्यन्त इस तरह दो प्रकार मौन धारण करना चाहिये ॥४३।। मौनव्रत धारण करनेवालोंको भोजन, जिन भगवान्का पूजन, स्नान, शौच, मूत्र आवश्यक (सामायिकादि षटकम) और स्त्रियोंके साथ रमण ये सब कार्य मौन पूर्वक करना चाहिये ॥४४॥ मौनव्रतके धारण करने वालोंको भोजन करते समय लोलुपताके अर्थ हुँकार, हाथसे किसी प्रकारका संकेत, भ्र आदिको चलाना तथा क्लेश आदि नहीं करना चाहिये ॥४५।। साधु पुरुष ( मुनि ) इसी मौन व्रतके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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