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________________ १२८ श्रावकाचार-संग्रह परवारकुचस्यादौ न चक्षुनिक्षिपेदसौ । क्षुब्धं चेन्नालमाकष्टुं कर्दमे जरदुक्षवत् ॥६४ स्वनार्यामपि निविण्णः सन्ततौ कुरुते रतिम् । शीतं नुनुत्सुर्वा बह्नौ ब्रह्मचारी न पर्वणि ॥६५ स्वस्त्रियं रममाणोऽपि रागद्वेषौ भजत्यहो । सूक्ष्मान्योन्यङ्गिनोऽनेकान्हिनस्तीति स हिंसकः ॥६६ मू तृष्णाङ्गपीडानुबन्धकृत्तापकारकः । स्त्रीसंभोगः सुखं चेत्स्यात्कामिनां न ज्वरः कथम् ॥६७ परस्त्री रममाणस्य क्रिया काचिन शर्मणे । दृश्यतेऽसमरङ्गत्वादनवस्थितचित्ततः ॥६८ परदारनिवृत्तो यो यावज्जीवं त्रिधा नरः । अद्भुतातिशयः सोऽपि किं वयं ब्रह्मचारिणः ॥६९ सीतेव रावणं या स्त्री परभारमुज्झति । रूपैश्वर्यादिवर्य च सा गीर्वाणैरपोज्यते ॥७० परविवाहकरणानङ्गक्रीडास्मरागमाः । परिगृहीतेत्वरिकागमनं सेतरं मलाः ॥७१ . चेतनेतरवस्तूनां यत्प्रमाणं जिनेच्छया । कुर्यात्परिग्रहत्यागं स्थलं तत्पञ्चमं व्रतम् ॥७२ क्रोधाद्यभ्यन्तरग्रन्थानुद्यतोऽपि निवारयेत् । क्षमाद्यैः क्षेत्रवास्त्वादोनल्पीकृत्य शनैः शनैः ॥७३ कि-दूसरोंकी स्त्रीके स्तन, मुख अथवा और किसी अङ्गमें अपने नेत्रोंको कभी नहीं डाले । क्योंकि क्षोभित ( विकारयुक्त ) नेत्रोंका स्त्रियोंकी ओरसे हटाना बहुत दुष्कर हो जाता है। जिस तरह कीचड़में फंसे हुए वृद्ध बैलका निकलना कठिन हो जाता है ॥६४॥ स्वदार सन्तोषव्रत पालने वाले ब्रह्मचारी पुरुषोंको अपनी स्त्रीमें भी विरक्त होकर केवल सन्ततिके लिये रति करना चाहिये। जिस तरह शीतकी बाधाके दूर करने के लिये अग्निका सेवन किया जाता है । अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्यों में तो कभी विषय सेवन नहीं करना चाहिये ॥६५॥ अपनी स्त्रीके साथमें विषय सेवन करता हुआ भी राग और द्वेषको प्राप्त होता ही है। तथा योनिस्थानमें उत्पन्न होनेवाले अनेक सूक्ष्म जीवोंको मारता है इसलिये वह हिंसक भी है ॥६६॥ मा, तृष्णा तथा शरीर पीड़ा करनेवाला और सन्ताप बढ़ाने वाला, स्त्रियोंके साथमें किया हुआ विषय ही यदि कामी पुरुषोंको सुख देने वाला हो तो फिर ज्वर क्यों नहीं सुख देनेवाला माना जावे ? ॥६७॥ समान रतिके न होनेसे तथा चित्तके आकुलित रहनेसे दूसरोंकी स्त्रियोंके साथमें विषय सेवन करनेवाले पुरुषोंकी कोई क्रिया सुखकी कारण नहीं होती है ।।६८॥ जो पुरुष मन वचन कायसे जोवन पर्यन्त परस्त्रीसे निवृत्त रहता है वह भी आश्चर्यके करनेवाले अतिशय (महिमा) से युक्त होता है फिर जो भव्य पुरुष सर्वथा ब्रह्मचारी (स्वस्त्री और परस्त्रीसे विरक्त) रहते हैं उनका तो हम वर्णन ही क्या करें ॥६९।। जिस तरह सोताने रावणको मन वचन कायसे छोड़ा था उसी तरह जो स्त्री रूप लावण्य करके अत्यन्त सुन्दर भी पर पुरुषको छोड़ देती है-उसको स्वप्नमें भी कभी वाञ्छा नहीं करती है उसे देवता लोग भी पूजते हैं ।।७०॥ पर विवाह-दूसरोंक पुत्र पुत्रीका विवाह कराना, अनङ्गक्रीड़ा-जो विषय सेवनका अङ्ग है उसे छोड़ कर और दूसरे अवयवोंसे क्रीड़ा करना, स्मरागम-हर समय स्त्रियोंके साथ विषय सेवनकी अभिलाषा रखना, परिगृहीतेत्वरिकागमन जो स्त्री विवाहिता है परन्तु उसका पति पिता अथवा और कोई नहीं है और वह गुप्तरूपसे अथवा प्रगट रूपसे दूसरे पुरुषोंकी इच्छा करती है उसे परिगृहीत इत्वरिका कहते हैं ऐसी स्त्रीके यहां जाना, अथवा-अपरिगृहीत इत्वरिकागमन-वैश्यादिकोंके यहाँ जाना ये पाँच स्वदार सन्तोष व्रतके अतीचार हैं। इन्हें परस्त्रीत्यागवतके धारण करनेवालोंको छोड़ना चाहिये।।७१।। धन धान्यादि अचेतन और दासो दास आदि सचेतन वस्तुओंका अपनी इच्छासे जो प्रमाण करना है उसे स्थूलपरिग्रहत्याग नाम पांचमा अणुव्रत कहते हैं ।।७२।। क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दासी, दास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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