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श्रावकाचार-संग्रह
जग्मतुः केलिवाप्यांत जलक्रीडार्थमेकदा । राजन्यैर्बहुनेपथ्यैः सवयोभिः समं परैः ॥८६ मज्जनोन्मज्जनाभ्यां तौ प्लवनैरब्जताडनैः । व्यधत्तां खेलनं वाप्यामन्योन्यं कलभावित्र ॥८७ ईष्यंयाऽसौ सुषेणेन न्यक्षेपि क्वचिदंभसि । अगाधे दैवतो भीत्या निर्गत्य स पलायितः ॥८८ एकमेकं सहन्ते नो तिष्ठन्त्येकाकिनोऽपि नो । गर्दभा वृषभा अश्वाः कितवा: सुधयोऽर्भकाः ॥८९ इतः पुण्यात्स पानीयान्निर्गतो राजनन्दनः । समागत्य निजं धाम्नि क्रीडां कुर्वन्न्यवस्थितः ॥९० महत्काले व्यतिक्रान्ते दधौ राज्यं सुमित्रकः । गृहीतवांस्तपो जैनं सुषेणश्चिरशङ्कया ॥ ९१ निर्ग्रन्यवृत्तिमादाय धृतपञ्चमहाव्रतः । परीषहसहस्तेपे घोरं मध्याह्नभानुवत् ॥९२ आसनस्थेन भूपेन मुनिर्दृष्टः परिभ्रमन् । अन्यदा पुरि भिक्षार्थं मध्याह्न क्षीणविग्रहः ॥ ३ पप्रच्छ स्वाङ्गरक्षं स कञ्चित्कोऽसौ मुनीश्वरः । श्रुत्वेति निजगादेशं भटो देव निशम्यताम् ॥९४ सुषेणो मन्त्रिपुत्रोऽयं तव प्राणसमः सुहृत् । त्यक्त्वा मोहमृषिर्जातो राजन्मासोपवासकृत् ॥९५ गाम्भीर्येण सरिन्नाथं यो धैर्येण सुरालयम् । जिगाय तपसा सूरं निसङ्गत्वेन मारुतम् ॥९६ जगत्सूरोऽपि यं दृष्ट्वा शङ्कते निजचेतसि । एतादृशं तपः कर्त्तुं कोऽलं स्यादिह तं विना ॥९७
अपने समान आयु आदिसे मनोहर अनेक क्षत्रियपुत्रोंके साथ जलक्रीडा करनेके लिए क्रीडा करनेकी वापिकाके ऊपर गये ||८६ ॥ | वे दोनों मित्र वापिकामें डूबना, निकलना, तैरना एकके ऊपर एकका कमलोंका फेंकना इसी तरह अनेक प्रकारकी क्रीडायें, जैसे हस्ति बालक परस्परमें करते हैं उसी तरह परस्पर में करने लगे ||८७॥ इतनेमें मंत्रीके पुत्र सुषेणने द्वेष बुद्धिसे सुमित्रको कहीं बहुत गहरे जलके भीतर डाल दिया । और आप इस कुकर्मके भयसे वहाँसे झट निकलकर कहीं पर भाग गया || ८८|| गधे, बैल, घोड़े, धूर्तलोग, बुद्धिमान् और बालक ये एकको एक नहीं देखते हैं और न एकके पास एक बैठते हैं || ८९ || इधर वह राजपुत्र सुमित्र अपने भवान्तरमें कमाये हुए किसी बड़े भारी पुण्य कर्मके उदयसे उस अगाध जलसे ज्यों त्यों निकलकर अपने मकानपर आया और फिर भी पहलेके समान क्रीड़ा करने लगा ||१०|| इसी तरह उन दोनों मित्रोंका बहुत काल व्यतीत हुआ । फिर सुमित्रको जब राज्य भार मिला तब सुषेणने सोचा कि अब इसे राज्य प्राप्त हो गया है यह मुझे मारकर अवश्य अपना वैर निकालेगा इसी शङ्कासे सुषेण जिनदीक्षाको ग्रहण करके मुनि हो गया ॥ ९१ ॥ परिग्रह-रहित मुनिव्रतको धारण करके जिसने पञ्च महाव्रतों को धारण किये हैं ऐसा वह सुषेण मुनि नाना प्रकारको कठिनसे कठिन परीपहोंको सहन करता हुआ अत्यन्त दुर्धर तप करने लगा । जैसे मध्याह्न कालमें सूर्य दुष्कर रूपसे तपता है ॥९२॥ किसी समय राजसिंहासनस्थ महाराज सुमित्रने अपने नगरमें आहारके लिये मध्याह्नकालमें घूमते हुए उन्हीं सुषेण मुनिको देखे । जिनका शरीर अनेक प्रकारके तपश्चरणादिके करनेसे अत्यन्त क्षीण ( कृश ) हो गया है ||९३ || महाराज सुमित्रने मुनिको देखकर अपने किसी शरीर-रक्षक नौकरसे पूछा कि यह कौन मुनिनाथ हैं ? महाराजके वचनोंको सुनकर वह अङ्ग-रक्षक बोला - महाराज इन मुनिके सम्बन्धकी सब बातें कहता हूँ आप सुनो || ९४ || हे देव ! जिस मुनिको आप अपने नयनोंसे देख रहे हैं वह और कोई नहीं हैं किन्तु तुम्हारे प्राणोंके समान परम मित्र आपके मन्त्री के पुत्र सुषेण हैं । इस समय संसारके मूल कारण मोहको छोड़कर एक एक महीने के उपवासोंको करनेवाले मुनि हुए हैं || ९५ || महाराज ! ये कोई ऐसे साधारण मुनि नहीं हैं किन्तु अपनी गम्भीरतासे समुद्रको, धैर्यसे सुमेरु पर्वतको, अपने घोर तपसे सूर्यको और निसंगपनेसे वायुको जीत
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