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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार ११३ पारणार्थं समायातो विपिनादधुना मुनिः । प्राणाः स्युनं विनाऽऽहारं स्थिराः कर्त्तुं तपोविधिम् ॥९८ तद्गीः सुधां निपीयाऽसौ भूपोऽमुञ्चन्मुदश्रुणी । उत्थायासनतः पादौ तस्य भक्त्याऽनमत्तदा ॥९९ भो ! मित्र ! दर्शनात्तेऽहं ववृधेऽब्धिरिवेन्दुतः । कृत्वा प्रसादमेहि त्वं गृहं राज्यं विधेहि मे ॥१०० एष देशः श्रियां देश: पूरियन्टलकोपमा । अमी गजा अमी अश्वाः कान्ताः कान्ता अमूस्तव ॥ १०१ अहं राज्यधुरं धर्त्तुमसमर्थोऽतिदुर्द्धराम् । अतो गृहाण मोमित्र ! राज्यं राजशतानतम् ॥१०२ निर्मारोऽस्मि प्रसादात्ते तथा कुरु सुनिश्चितम् । तच्छ्रुत्वा मुनिनोचेऽसाविति स्नेहपरायणः ॥१०३ भो ! भो ! कुवलयेन्दो ! त्वं स्वराज्यं कुरु निश्चलम् । तपः कुर्वन्नहं क्षीणो नालं जेतुमरीनिमान् ॥ १०४ आदौ स्वानि राजेन्द्र ! विरामे कटुकानि च । इन्द्रियाणां सुखानीह विषाश्लिष्टाशनानि वा ॥ १०५ चेत्तृप्यन्तो धनैर्वह्निर्नदीपूरैः पयोनिधिः । सन्तुष्यति तदा जीवः पञ्चाक्षविषयाऽऽमिषैः ॥ १०६ भोगिभोगोपमान्भोगान् राज्यं पादरजः समम् । धनञ्च निधनं प्रायं ज्ञात्वा कोऽज्ञो विमुह्यति ॥१०७ लिया है ||९६ || जिन मुनिके तपश्चरणको देखकर जगत्का सूर्य भी मनमें यह सन्देह करता है कि अहो ! इस जगत्में इस प्रकार तप करनेको इन्हें छोड़कर और कौन समर्थ हो सकता है ||९७|| वे ही श्री सुषेण मुनिराज आज एक महीनेके उपवास के अनन्तर पारणा करनेके लिये नगरमें पधारे हैं । क्योंकि जब तक प्राणोंको आहारका अवलम्बन न मिलेगा तब तक वे तप करनेके लिये स्थिर कभी नहीं हो सकते || १८ || महाराज सुमित्रने जब उस शरीर-रक्षकके अमृतके समान वचनोंको सुना उनके लोचनोंसे आनन्दाश्रु गिरने लगे । और उसी समय अपने सिंहासनसे उठकर भक्तिपूर्वक मुनिराजके चरण कमलों को नमस्कार किया || ९९ ॥ अय मित्र ! आज मैं तुम्हारे पवित्र दर्शनोंसे चन्द्रमाके उदय होनेसे जैसे समुद्र बढ़ता है उसी तरह वृद्धिको प्राप्त हुआ हूँ । इसलिये मेरे पर प्रसन्न होओ और इस सम्पत्तिशाली राज्यलक्ष्मीको तथा इस गृहको स्वीकार करो ||१००|| देखो ! यह देश तो एक तरह लक्ष्मीका देश (स्थान) है और यह पुरी कुबेरकी अलकावली (अमरावती) नगरीके समान है। ये हाथी हैं, ये घोड़े हैं और ये अतिशय सुन्दरी स्त्रियां हैं । यह सब साम्राज्य आप ही का है ॥ १०१ ॥ हे मित्र, मैं अकेला अत्यन्त दुर्द्धर इस राज भारके धारण करनेको समर्थ नहीं हूँ । इसलिये सैकड़ों राजा लोग जिसकी आज्ञाको धारण करते हैं ऐसे इस राज्यको आप मेरी प्रार्थनासे स्वीकार करो ॥१०२॥ हे भगवन् ! अब आपके अनुग्रहसे इस राज्यके भारसे सर्वथा भार - रहित हूँ । इसलिये मेरी प्रार्थनाके अनुसार इस राज्यको ग्रहण करो। अपने मित्र सुमित्र के ऐसे वचनोंको सुनकर सुषेण मुनिराज अत्यन्त प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले ।। १०३ ।। हे इस पृथ्वी मंडलको चन्द्रमाके समान आह्लादके देने वाले सुमित्र ! इस राज्यका निश्चलता पूर्वक तुम ही पालन करो, क्योंकि मैं तो दुष्कर तपके करनेसे बिल्कुल असक्त हो गया हूँ इसलिये इन शत्रु लोगोंको नहीं जीत सकूँगा || १०४ || हे राजन् ! ये इन्द्रियोंके सुख पहले तो कुछ अच्छेसे मालूम पड़ते हैं परन्तु अन्त समयमें बिल्कुल कड़वे हैं । अथवा यों कहो कि विषसे युक्त जैसा भोजन ऊपरसे मनोहर सा दीखता है परन्तु वास्तवमें प्राणोंका घातक है वैसे ही ये इन्द्रियोंसे उत्पन्न होने वाले सुख हैं ।। १०५ ।। हे राजन् ! यदि अग्निकी इन्धन (काष्ठ) से अथवा समुद्रकी अनेक नदियोंसे पूर्ति हो जावे तभी इन पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी विषय रूपी मांससे इस जीवकी तृप्ति मान सकता हूँ ॥१०६ ॥ भावार्थ - अग्नि आदिकी काष्ठादिकोंसे न कभी तृप्ति हुई सुनी है और न होगी उसी १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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