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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
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सुभगे किस ते भर्त्ता जातो वा नाऽभिधेहि तत् । सोवाच व्रतमाहात्म्यात्सौधर्मे न च मे पतिः ॥७४ दिव्यान्भोगानिदानों स स्वप्सरोभिर्भुनक्त्यलम् | अविच्छिन्नाञ्जरातङ्कभयचिन्तादिवर्जितान् ॥७५ यक्षीवाक्यात्स सद्धर्मे श्रद्धावान्संगृहीतवान् । समाधिगुप्तिसंज्ञस्य मुनेरन्ते गृहिव्रतम् ॥७६ अनुभूय सुरः सौख्यं सागरद्वयमैन्द्रियम् । अभूः कुणिकभूपस्य श्रीमत्याः श्रेणिकः सुतः ॥७७ सोऽपि कालेन तत्रैव स्वर्गेऽभूदृद्धिनायकः । व्रतप्रभावतो राजन्वांछितार्थप्रदायिनि ॥७८ बुभुजाते सुखं दिव्यं द्वाददि स्नेहनिर्भरौ । अप्सरोभिर्मनोऽभीष्टं स्वेच्छया सागरद्वयम् ॥७९ इह जम्ब्वन्तरीपेऽस्मिन्क्षेत्रे भरतनामनि । सूरकान्ताभिधो देशः श्रिया देवकुरूपमः ॥८० प्रत्यन्तनगरं तत्र चतुर्वर्णसमाश्रितम् । नीत्यादिगुणसम्पन्नस्तत्रेशो मित्रसंज्ञकः ॥८१ खदिरादिचरः स्वर्गादेत्य तस्याऽभवत्सुतः । समित्राम्भोरुहां मित्रो यः सुमित्रो निजाख्यया ॥८२ रूपेण हृदयोद्भूतः कान्त्येन्दुः स्वविया गुरुः । विद्याभ्यासं प्रकुर्वन्स चिक्रीड पितृमन्दिरे ॥८३ अमात्यनन्दनोऽन्योऽपि सुरस्तत्रैव जातवान् । सुषेणाख्योऽतिसौन्दर्य कला विज्ञानपारगः ॥८४ राजमन्त्रिसुतौ स्नेहनिर्भरत्वमुपागतो । अतिष्ठतां सदैकत्र स्नानाऽऽसनक्रियादिषु ॥८५
क्रियाके अन्तमें, जिस मार्ग से वह आया था उसी मार्गसे जाता हुआ उन यक्षीसे बोला ॥७३॥ हे सुभगे ! वह भील तुम्हारा प्राणनाथ हुआ या नहीं, तुम ठीक कहो ? सूरवीरके वचनको सुनकर यक्षीने कहा—वह व्रतके माहात्म्यसे सौधर्म स्वर्गका देव हुआ है । मेरा स्वामी नहीं हुआ || ७४॥ वह सौधर्म स्वर्गका देव इस समय अपनी देवांगनाओंके साथ रोग, भय, चिन्ता आदि व्याधियोंसे रहित स्वर्गके भोगोंको निरन्तर भोग रहा है ||७५ || यक्षीके वचनोंको सुनकरके सूरवीरने अपनी बुद्धिको जिनधर्म में दृढ़ करके उन्हीं समाधिगुप्ति मुनिके पास गृहस्थ धर्मको अंगीकार किया ||७६|| इसके बाद दो सागर पर्यन्त स्वर्ग-जनित उत्तम सुखोंको भोगकर वह देव कुणिक नामक राजा और श्रीमती महाराणीके श्रेणिक नामक पुत्र हुआ है || ७७ || ग्रन्थान्तरके अनुसार यह कथानक इस प्रकार है—कुछ कालके बाद वह सूरवीर भी मनोवांछित सुखादिके देनेवाले उसी स्वर्ग में व्रत के प्रभाव से ऐश्वर्यका स्वामी देव हुआ || ७८ ॥ परस्पर अत्यन्त स्नेह से युक्त वे दोनों देव अपनी-अपनी देवांगनाओंके साथ इच्छापूर्वक मनोवांछित स्वर्गके सुखोंका उपभोग करने लगे || ७९ || इस जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र में सुरकान्त नामका देश है । वह अपनी बढ़ी हुई शोभासे देवगुरु भोगभूमिसे किसी भी तरह कम नहीं है ||८०| उस सूरकान्त देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदिसे शोभित प्रत्यन्त नामका नगर है । उस नगर में राजनीति आदि अनेक प्रकारकी राजविद्या को जाननेवाला मित्रसंज्ञक नामका राजा राज्य करता था ॥ ८१ ॥| वह खदिरसार भीलका जीव सौधर्म स्वर्गसे आकर मित्र राजाके सुमित्र नामक पुत्र हुआ। वह सुमित्र अपने सुमित्ररूप कमलोंके प्रफुल्लित करनेके लिये वास्तवमें मित्र ( सूर्य के समान ) था ॥८२॥ लोकोंको आश्चर्य के करनेवाले अपने रूपसे कामदेव के समान, मनोहर शरीरकी कान्तिसे चन्द्रमाके समान और अप्रतिम ( असाधारण ) बुद्धिसे बृहस्पतिके समान वह बालक सुमित्र विद्याभ्यासको करता हुआ अपने जनकके मन्दिर (गृह) में क्रीडा करता था || ८३ || उसी प्रत्यन्त नगरमें वह सूरवीरका जीव अत्यन्त सुन्दरता, कला, विज्ञान, आदि अनेक गुणोंका जाननेवाला सुषेण नामक मन्त्री पुत्र हुआ || ८४ ॥ उन दोनों राजपुत्र और मन्त्रिपुत्रों का परस्पर अत्यन्त अनुराग हो गया । यहाँ तक कि उन दोनोंका बैठना, उठना, स्नान करना, भोजन करना आदि सब साथमें होता था || ८५ || एक दिन वे दोनों मित्र
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