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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार आद्यो दर्शनिकः श्राद्धो द्वितीयो व्रतिको मतः । सामायिकी प्रोषधोपवासकृत्स्याच्चतुर्थकः ॥११ सचितदिवामैथुनविरतौ ब्रह्मचारिकः । आरंभपरिग्रहानुमतान्मुक्तास्तथोद्दिष्टात् ॥१२ एकादशोपासकेषु षडाद्या गृहिणोऽधमाः । वणिनोऽन्ये त्रयो मध्या उत्कृष्टौ भिक्षुको परौ ॥१३ पाक्षिकाचारसम्पत्त्या निर्मलीकृतदर्शनः । विरक्तो भवभोगाभ्यामहदादिपदार्चकः ॥१४ मलात्मूलगुणानां निर्मूलयन्नग्रिमोत्सुकः । न्याय्यां वार्ता वपुःस्थित्यै दघद्दर्शनिको मतः ॥१५ विषयानजस्रं हेयाजानतोऽप्यहंदाज्ञया । भोक्तुं मोहादशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते ॥१६ तावदाज्ञां जिनेन्द्रस्य श्रद्दधदृधमुज्झितुम् । अष्टौ मूलगुणान्याति य. पीठं धर्मपादपे ॥१७ मद्यमांसमधुत्यागं पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । सातिचा बुधा आहरष्टौ मूलगुणानिति ॥१८ मद्यद्रवमया जीवा म्रियन्ते स्थावरास्त्रसाः । अनेके मद्यपानेन तस्मान्मद्यं परित्यजेत् ॥१९ दैवाद्यदि समुद्भुता मद्यबिन्दुलतेऽङ्गिनः । प्रसरन्ति तदा नूनं पूरयन्त्यखिलं जगत् ।।२० मूर्छा कम्पः श्रमः खेदो वैमुख्यं रक्तदृष्टिता। गतिभङ्गादयोऽन्येऽपि दोषाः स्युर्मद्यपानतः ॥२१ देशसंयम होते हैं। उसे देशसंयमी कहते हैं ॥१०॥ पहली प्रतिमाको धारण करनेवाला दर्शनिक श्रावक कहा जाता है। दूसरो प्रतिमाको धारण करनेवाला वतिक कहा जाता है। इसी तरह तीसरी प्रतिमाके धारण करनेवालेको सामायिकी कहते हैं। प्रोषधोपवासका करने वाला चौथा श्रावक कहा जाता है । सचित्तविरत पाँचवी प्रतिमाका धारण करनेवाला होता है। छठी प्रतिमाका धारण करनेवाला दिनमें मैथुनका त्यागी होता है। सातवों प्रतिमाको धारण करने वाला ब्रह्मचारी कहा जाता है । आठवीं प्रतिमा वाला आरम्भका त्यागी होता है। नवमी प्रतिमाका धारक परिग्रहका त्यागी होता है। दशमी प्रतिमाका धारक संसार सम्बन्धी कृषि विवाहादिकार्यों में मन, वचन, कायसे सम्मति देनेका त्यागी होता है। ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक अपने निमित्तसे बनाये हुए भोजनका त्यागी होता है ।।११-१२।। इन ग्यारह प्रतिमाओंके धारण करनेवालोंमें आदिके छह जघन्य श्रावक कहे जाते हैं। ब्रह्मचारी आरंभत्यागी और परिग्रहत्यागी ये तीन मध्यम श्रावक कहे जाते हैं और बाकी दो प्रतिमाओंके धारण करनेवाले उत्कृष्ट श्रावक कहे जाते हैं। इन्हें सामान्यतासे उत्कृष्ट भिक्षुक भी कहते हैं ।।१३।। पाक्षिक श्रावक सम्बन्धी आचारादिकोंसे जिसने अपने सम्यग्दर्शनको शुद्ध कर लिया है, जो संसार और विषयादिसे विरक्त है, सदा अर्हन्त भगवान्के पूजनादि करनेवाला है, मूल गुणोंके दोषोंका सर्वथा नाश करके आगेकी प्रतिमाओंके धारण करने में उत्कंठित तथा अपने शरीरको स्थितिके लिए न्याय युक्त आजीविकाका करनेवाला है वही दर्शनिक (दर्शन प्रतिमाका धारक) कहा जाता है ॥१४-१५॥ जिन भगवान्की आज्ञासे विषयादि निरन्तर छोड़ने योग्य हैं ऐसा जानता हआ भी जो चारित्रमोहके उदय ये उनके छोड़नेको असमर्थ है उसीके गृहस्थ धर्मकी अनुमति दी गई है ॥१६॥ जिन भगवान्को आज्ञाका श्रद्धान करता हुआ हिंसाके छोड़ने के लिये जो आठ मूल गुणोंको धारण करता है समझना चाहिये उस पुरुषने धर्म रूप वृक्षके ऊपर चढ़नेके लिए मूल पीठको प्राप्त कर लिया है ॥१७|| अतिचारसे युक्त मद्य, मांस, मधु, तथा पञ्च उदुम्बर फलके त्यागनेको महर्षि लोग आठ मूल गुण कहते हैं ।।१८।। मद्यके पीनेसे मद्यमें उत्पन्न होने वाले स्थावर और त्रस जीवोंका घात होता है, इसलिये मदिराका परित्याग करना चाहिए ॥१९॥ यदि मद्यके उत्पन्न होने वाले जीव फैलने लगें तो सारे संसारको निश्चयसे पूर्ण कर देंगे ॥२०॥ मद्यके पीनेसे केवल जीवोंका ही घात नहीं १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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