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________________ १०६ श्रावकाचार-संग्रह रथ्यायां पतितो मत्त आगत्य श्वा तदानने । श्रवेद्यदि विलभ्रान्त्या ब्रूतेऽन्यद्धेहि मे ॥२२ मद्यपो मातरं ब्रूते त्वमेहि त्वां रमे भृशम् । भार्याञ्च तव पुत्रोऽहं स्तनपानेन पालय ॥२३ सज्जनानङ्गजान्बन्धन शत्रूनिव सुमारयेत् । क्रुद्धः सन् गृह भांडानि स्फोटयत्याशु यष्टिना ॥२४ मृत्वैति नरकं घोरं मद्यपानेन पापधीः । चक्षुःस्पन्दमिति यत्र न सुखं जायतेऽङ्गिनाम् ॥२५ तन्मुखेऽन्ये ज्वलत्तानद्रवं क्षिप्त्वा वदन्ति च । पिब मद्यमिदं पाप रोचतेऽद्यापि ते भृशम् ॥२६ ततो निर्गत्य तिर्यक्षु पीडितेषु क्षुदादिभिः । परस्परविरुद्धेषु सहते वेदनामसौ ॥२७ कश्चिन्मत्तेन भिल्लेन रुद्धो गङ्गां व्रजन्द्विजः । मद्यमांसाङ्गनास्वेकतमं चेद्धोक्ष्यसे तदा ॥२८ मुश्चे नो चेनिहन्मि त्वां श्रुत्वाऽसावित्यचिन्तयत्।। भक्ष्यं मासं न जीवाङ्गाद्विल्ली सेव्याऽधमा च नो ॥२९ तस्माद्गुडोदकाद्युत्यं मद्यं पीत्वा व्रजाम्यतः । पीतं तेन ततो भ्रान्त्या तवयं चाऽभजत्वसौ ॥३० मत्वेति दोषवत्त्याज्यं मद्यं चित्तभ्रमप्रदम् । चित्तभ्रमेण मत्तोऽसौ कान्यकार्याणि नाऽऽदरेत् ॥३१ होता, किन्तु मी, कम्पन, परिश्रम, पसोना, विपरीतपना, नेत्रोंका लाल होना, तथा गमन करनेके समय पांवोंका इधर उधर गिरना इत्यादि अनेक दोष होते हैं ।।२१।। मदिराके पीनेसे उन्मत्त होकर मनुष्य जब कहीं गलियोंमें गिर पड़ता है, तब बिलकी शङ्कासे कुत्ता उसके मुंहमें मूतने लगता है तो वह उन्मत्त कहता है कि मुझे और देओ ।।२२।। मदिराका पीने वाला अपनी मातासे कहता है कि तुम इधर आओ तुम्हारे साथ मैं विषय सेवन करूं। और अपनी स्त्रीसे कहता है कि अयि जननि ! मैं तुम्हारा पुत्र हूँ मुझे अपने स्तनोंका दूध पिला कर पालो ।।२३।। मद्यका पीने वाला सज्जन पुरुषोंको, अपने लड़के लड़कीको, और अपने बन्धु लोगोंको शत्रुकी तरह मारता है। तथा क्रोधी होकर अपने ही घरके बर्तन वगैरहको शीघ्र ही लकड़ीसे फोड़ डालता है ।।२४।। मदिराका पीने वाला वह पापात्मा अपने दुष्कर्मोके फलसे मर कर घोर दुःखोंके प्रधान स्थान नरकमें जाता है। जहां नेत्रोंके निमेष लगने मात्र भी जीवोंको सुख नहीं होता है ॥२५।। नरकोंमें मद्य पीने वाले जीवोंके मुख में नारकी लोग जलते हुए ताँबेको डाल कर कहते हैं कि रे पापी! इस मद्यको पी, तुझे तो मद्य बहुत रुचिकर लगता है ॥२६॥ वह जीव नरकोंमें अनेक तरहके दुःखोंको भोग कर आयुके अन्तमें नरकोंसे निकल कर तिर्यञ्च योनिमें पशु पर्यायको धारण करता है जिस पर्यायमें क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण, ताड़न, छेदन, भेदन आदि अनेक प्रकार. की बाधाएं निरन्तर बनी रहती हैं। इतने पर भी परस्पर विरुद्ध पर्यायमें और भी दुष्कर दुःखोंकी वेदनाएँ सहन करनी पड़ती हैं ॥२७॥ किसी समय एक ब्राह्मण गंगा स्नानके लिये जाता था, रास्तेमें उसे एक उन्मत्त भील मिला, भीलने ब्राह्मणसे कहा कि यदि तुम मद्य मांस अथवा स्त्री इन तीन वस्तुओंमेंसे किसी एकका उपभोग करोगे तो मैं तुम्हें आगे जानेके लिए छोडूंगा। यदि मेरा कहना नहीं करोगे तो मैं इसी समय तुम्हें मार दूंगा। इस बातको सुन कर ब्राह्मण विचारमें पड़ गया। उसने सोचा अब क्या करना चाहिये । अन्तमें उसने निश्चय किया कि-मांस तो जीवोंके मारनेसे उत्पन्न होता है इसलिये खानेके योग्य नहीं है और यह भिल्लनी नीच जाति है इसलिये यह भी ब्राह्मणोंके सेवन करनेके योग्य नहीं है। हाँ बचा मद्य, सो यह तो गुड़ जलादिसे बनाया जाता है। इससे इसके पीने में कोई हानि नहीं है। इसी भ्रान्तिसे उसने मद्यको पी लिया। मद्यके पीते ही उसने मांस तथा उस भिल्लनीका भी उपभोग किया ॥२८-३०॥ इस तरह अनेक प्रकारके दोषोंके स्थानभूत और चित्तमें भ्रान्तिको पैदा करनेवाले मद्यको छोड़ देना चाहिये । क्योंकि उन्मत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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