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________________ द्वितीयोऽधिकारः सम्यग्दर्शनसम्पन्नः प्रत्यासन्नामृतः प्रभुः। स स्थान्छावकधर्मा) धर्मः स त्रिविषो भवेत् ॥१ पक्षश्वर्या साधनञ्च त्रिधा धर्म विदुधाः। तद्योगात्पाक्षिकः श्राखो नैष्ठिकः साधकस्तथा ॥२ मैत्र्यादिभावनावृद्धं त्रसप्राणिवघोसनम् । हिंस्यामहं न धर्मादी पक्षः स्यादिति तेषु च ॥३ सम्यग्दृष्टिः सातिचारमूलाणुव्रतपालकः । अर्चाविनिरतस्स्वनपदकांक्षीह पाक्षिकः ॥४ दोषं संशोध्य संजातं पुत्रेऽन्यस्य निजान्वयम् । त्यजतः सद्यश्चर्या स्यानिष्ठावानामभेवतः ॥५ दृष्टचादिवशधर्माणां निष्ठा निर्वहणं मता। तया चरति यः स स्यानेष्ठिकः साधकोत्सुकः ॥६ स्यादन्तेऽन्नेहकायायानामुमनाबधानशुद्धिता । आत्मनः शोषनं ज्ञेयं साधनं धर्ममुत्तमम् ॥७ ज्ञानानन्दमयात्मानं साधयत्येष साधकः । श्रितापवादलिङ्गेन रागादिक्षयतः स्वयुक्॥८ देशयमनकोपाविक्षयोपशमभावतः । श्राद्धो दर्शनिकाविस्तु नैष्ठिकः स्वात्सुलेश्यकः ॥९ प्रारब्धो घटमानश्च निष्पनो योगपखमः । यस्याऽहंतस्य स त्रेधा योगीव देशसंयमी ॥१० जो सम्यग्दर्शनसे युक्त होता है और जिसकी संसार स्थिति बहुत निकट है वही पुरुष श्रावक धर्मके ग्रहण करनेके योग्य है। उस श्रावक धर्मके तीन भेद हैं ।।१।। पक्ष, चर्या और साधन इन भेदोंसे धर्मके तीन भेद महर्षि लोगोंने कहे हैं। इन तीनों धर्मोके धारण करनेसे पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक इस तरह श्रावकके भी तीन भेद होते हैं ॥२॥ मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार प्रकारकी भावनाओंसे वृद्धिको प्राप्त और दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चतुरिन्द्रियादि जीवोंके वधके छोड़नेको, तथा धर्मके लिये भी कभी जीवोंके नहीं मारनेको पक्ष कहते हैं ॥३॥ सम्यग्दृष्टि, अतिचार सहित मूल गुण और अणुव्रतका पालन करनेवाला, जिन भगवान्के पूजनादिमें अनुरागी तथा आगेके व्रतोंके धारण करनेकी इच्छा करनेवाला पाक्षिक श्रावक कहा जाता है ॥४॥ पहले कृषि आदिके आरम्भसे जो-जो दोष उत्पन्न हुए हैं उन्हें प्रायश्चित्तादिसे शोधन करके अपने घरके छोड़ने वालेको चर्या नामक धर्म होता है । नाम भेदसे उसे निष्ठावान् भो कहते हैं ॥५॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र और उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य इनके पालन करनेको निष्ठा (श्रद्धा ) कहते हैं । जो साधन करनेकी उत्कण्ठासे युक्त होता है वह नैष्ठिक कहा जाता है ।।६।। मरण समयमें अन्न और शरीरादिकोंमें ममत्वको छोड़कर और ध्यानकी शुद्धिसे अपने आत्माको शुद्ध करनेको साधन नामक उत्तम धर्म कहते हैं ॥७॥ जो राग द्वेषादिकोंका नाश हो जानेसे अपवादलिजको धारण करके समाधिमरण करनेवाले अपने ज्ञानानन्द स्वरूप आत्माका साधन करते हैं वे साधक श्रावक कहे जाते हैं ॥८॥ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभके क्षयोपशम होनेसे दर्शन प्रतिमा आदिको धारण करने वाला नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है, उसके पीत पय और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओंमेंसे कोई लेश्या होती है ॥९|| जिस तरह साधु पुरुषोंके प्रारब्ध योग, घटमान योग और निष्पन्न योग ये तीन योग होते हैं उसी तरह अर्हन्त भगवान्को ही देव मानने वालेके प्रारब्ध ( आरंभ किया हुआ ) देशसंयम, घटमान ( सम्पादन किया जाने वाला) देशसंयम और निष्पन्न ( पूर्णताको प्राप्त हुआ ) देश संयम ये तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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