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धर्मसंग्रह श्रावकाचार यः सप्तकर्मोदयजातदुःखं समन्वभूदादिविजिते भ्रमन् ।
जिनेन्दुवाक्यामृतपाः सुमेधास्तद्धानितोऽनाकुलसौख्यमाप सः ॥८२ उत्पन्न होने वाले दुःखोंको भोगे हैं, जिन भगवान्के वचन रूपी अमृतके पीने वाले और बुद्धि मान् उन्हीं भव्यात्माओंने उन कर्मोंके नाश हो जानेसे आकुलता रहित सुखको अपने हस्त गत किया है । तात्पर्य यह है कि जो पुरुष श्री वीतराग भगवान्के वचनोंको अपने हृदयमें धारण करेगा वह नियमसे मोक्षको प्राप्त होगा इसलिये आत्महितके अभिलाषी पुरुषोंको जिन भगवान्के बचनोंके ग्रहण करने में प्रयत्नशील होना चाहिये ।।८२॥ इति सूरिश्रीजिनचन्द्रान्तवासिना पंडितमेधाविना विरचिते श्रीधर्मसंग्रहे
सम्यग्दर्शनस्वरूपवर्णनो नाम प्रथमोऽधिकारः ॥१॥
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