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________________ श्रावकाचार-संग्रह शाकांक्षा विचिकित्सा पराशंसनसंस्तवाः । सम्यक्वस्य त्वतीचाराः पश्चेत्युक्ता जिनेश्वरेः ॥७५ मन्दिराणामधिष्ठानं तरूणां सुदृढं जडम् । यथा मूलं व्रतादीनां सम्यक्त्वमुदितं तथा ॥७६ सम्यक्त्वे सति सर्वाणि फलवन्ति व्रतानि च । शून्यानि च बहून्यादौ यथैकाङ्के सति ध्रुवम् ॥७७ सम्यक्त्वेन हि सम्पन्नः सम्यग्दृष्टिस्वाहृतः । सोऽस्ति तुयंगुणस्थाने प्रसन्नान्तर्मुखः सदा ॥७८ गुणास्तस्याष्ट संवेगो निर्वेदो निन्दनं तथा । गर्होपशमभक्ती च वात्सल्यमनुकम्पनम् ॥७९ संवेगप्रशमास्तिक्यद याभिः स परोक्यते । सम्यग्दृष्टिबंहिर्भागे व्रतवाञ्छापरायणः ॥८० १०२ भूराज्यादिसदृक्कुषाविवशगो यः सर्वदृश्वाऽऽज्ञथा त्याज्यं शं करणोद्भवं स्वजमुपावेयं त्विति श्रद्दधत् । स्तेनः खण्डयितुं घृतस्तलवरेणेव स्वनिन्दाविकृदाक्षं संभयते वषत्यपि परं नो क्लिश्यते सोप्यः ॥८१ संसार सम्बन्धी भोगों की अभिलाषा रखना, धर्मात्मा पुरुषोंके रोगादिसे पीड़ित शरीरादिको देख कर उसमें ग्लानि करना, मिथ्या दृष्टियोंकी प्रशंसा करना तथा उनकी स्तुति करना ये सम्यक्त्व व्रतके पाँच अतीचार हैं || ७५|| जिस तरह मकानोंकी नींव जबतक अच्छी तरह मजबूत न होगी तब तक मकान चिरकाल पर्यन्त ठहर नहीं सकता । तथा वृक्षोंके सुदृढ़ रहनेका मूल कारण जड़ है, उसी तरह कितने भी व्रत नियमादि धारण किये जायँ किन्तु जब तक सम्यक्त्व न होगा तब तक वे एक तरहसे व्यर्थ ही हैं । इसलिये व्रतादिकोंका मूल कारण सम्यक्त्वको समझ कर पहले उसीके धारण करनेमें प्रयत्न करना चाहिये ||७६ ॥ व्रत नियमादि सब सम्यक्त्वके होने पर ही सफल होते हैं और सम्यक्त्वसे रहित जोवके व्रतादि उसी तरह निष्फल हैं जिस तरह अंकके विना बिन्दुएँ निष्फल होती हैं ॥७७॥ जो सम्यक्त्व रत्नसे विभूषित होता है वही सम्यग्दृष्टि कहा जाता है और वह चौथे गुरणस्थान में होता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष निरन्तर प्रसन्न चित्त होता है । उसे किसी तरह की चिन्ता आधि व्याधि आदि नहीं दबाती हैं ||७८|| निरन्तर संसारके दुःखोंसे डरना, संसार भोगादिकोंसे वैराग्य भाव होना, अपने दोषोंकी निन्दा करना, अपने किये हुए पाप कर्मोकी आलोचना करना, परिणामोंका हर समय शान्त रहना, देव गुरु शास्त्रादिमें अखंड भक्तिका होना, धर्मात्मा पुरुषों पर वात्सल्यका रखना तथा प्रत्येक जीवों पर दया बुद्धिका रहना, ये आठ गुण सम्यग्दृष्टि पुरुषोंमें रहते हैं ॥ ७९ ॥ व्रत धारण करनेकी इच्छामें तत्पर सम्यग्दृष्टि पुरुष बाहरमे संवेग, प्रशम, आस्तिक्य तथा दया बुद्धि इन चार गुणोंसे परीक्षा किया जाता है ||८०|| श्री जिनदेव कभी असत्यके बोलने वाले नहीं हैं ऐसा हृदयमें निश्चय करके उनकी आज्ञासे इन्द्रियोंसे होने वाले सुखोंको छोड़ने योग्य और अपने आत्मीय सुखको ग्रहण करने योग्य श्रद्धान करता हुआ, जिस तरह कोतवाल जिसे मारना चाहता है वह चोर पुरुष अपने पाप कर्मोकी निन्दा करता है, उसी तरह विषय सुखोंसे विरक्त न होनेके कारण अपने आत्माकी निन्दाको करनेवाला होकर यदि अप्रत्याख्यानाचरणी क्रोध, मान, माया, लोभ, की पराधीनतासे हिंसादि पञ्च पापोंका तथा विषयादिकोंका सेवन करता है तो भी वह दुखोंको नहीं पावेगा । ऐसे ही पुरुष अविरतसम्यग्दृष्टि कहे जाते है || ८१|| इस अपार संसारमें अनादि कालसे भ्रमण करते हुए जिन जीवोंने सात कर्मोंके उदयसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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