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________________ सामारधर्मामृत संन्यासो निश्चयेनोक्तः स हि निश्चयवेदिभिः । यः स्वस्वभावे विन्यासो निर्विकल्पस्य योगिनः॥१३ परीषहोऽथवा कश्चिदुपसर्गो यदा मनः । भपकस्य क्षिपेज्ज्ञानसारैः प्रत्याहरेत्तवा ॥९४ दुःखाग्निकोलराभोलेनरकादिगतिष्वहो । तप्तस्त्वमङ्गसंयोगाज्ञानामृतसरोऽविशन् ॥९५ इदानीमुपलब्धात्मदेहभेदाय साधुभिः । सदानुगृह्यमाणाय दुखं ते प्रभवेत् कथम् ॥९६ दुःखं सङ्कल्पयन्ते ते समारोप्य वपुर्जडाः । स्वतो वपुः पृथक्कृत्य भेदज्ञाः सुखमासते ॥९७ परायत्तेन दुःखानि बाढ़ सोढानि संसृतो। त्वयाद्य स्ववशः किश्चित् सहेच्छनिर्जरां पराम् ॥९८ यावद् गृहीतसंन्यासः स्वं ध्यायन संस्तरे बसेः । तावनिहन्याः कर्माणि प्रचुराणि क्षाणे क्षाणे ॥९९ पुरुषायान् बुभुक्षादिपरीषहजये स्मर । घोरोपसर्गसहने शिवभूतिपुरःसरान् ॥१०० अनुभव करता हुआ शुद्ध स्वात्माकी तन्मयतासे सर्व सङ्कल्पोंसे दूर होते हुए प्राण छोड़कर मोक्षको प्राप्त कर । भावार्थ हे क्षपक ! श्रुतके अवलम्बनसे आत्माके स्वरूपको ज्ञान दर्शन मय समझ स्वसंवेदनके द्वारा तदनुसार अनुभव करते हुए सब विकल्पोंका त्याग करके निर्विकल्पक होकर प्राणोंको छोड़कर मुक्तिको प्राप्त हो ॥१२॥ निर्विकल्पक योगीका जो अपने स्वभाव में स्थिरता है वह ही निश्चयवादियोंके द्वारा निश्चयनयसे समाधिमरण कहा गया है। भावार्थ-व्यवहारसापेक्ष निश्चयवादी आचार्य निर्विकल्पक योगीकी आत्माके स्वभावमें स्थापनको निश्चय समाधि कहते हैं ।।९३॥ जब कोई परीषह अयवा उपसर्ग क्षपकके मनको चलायमान करे उस समय निर्यापकाचायं ज्ञानके उपदेशोंसे उस क्षपकके मनको शुद्धोपयोगके सन्मुख करे। भावार्थसमाधिके समय किसी परीषह या उपसर्गके निमित्तसे क्षपकका मन शुद्धोपयोगसे चलायमान होवे तो निर्यापकाचार्य सारभूत व्याख्यानों द्वारा उसके मनको शुद्धोपयोगके सन्मुख करे ।।९४॥ हे क्षपक! ज्ञानामृतरूपी सरोवरमें अवगाहन नहीं करनेवाला तू शरीरके सम्बन्धसे नरकादिक गतियोंमें अनिवार्य शारीरिक-व्याधि और मानसिक आधिरूपी दुःखकी ज्वालाओंसे सन्तापको प्राप्त हुमा ॥१५॥ अब प्राप्त हुआ है आत्मा और देहका भेदविज्ञान जिसके ऐसे तथा परिचारक साधुओंके द्वारा सर्वदा अनुग्रहको प्राप्त तेरे लिए दु:ख केसे आक्रमण कर सकता है ? भावार्थ-भेदविज्ञान होने पर चतुर्गतिका दुःख नहीं होता। और इस समय तुमने भेदज्ञान प्राप्त कर लिया है तथा साधुजन सदा साधकरूपसे तुम्हारा अनुग्रह करनेमें उद्यत हैं। फिर तुम्हारे ऊपर किसी प्रकारका दुःख अपना प्रभाव कैसे डाल सकता है ? अर्थात् नहीं डाल सकता है ॥९६॥ जो शरीरको आत्मा मानकर दुःख अनुभव करते हैं वे बहिरात्मा कहलाते हैं। परन्तु जो शरीरको आत्मासे भिन्न अनुभव करके स्वात्मोत्थ आनन्दको अनुभव करते हैं वे अन्तरात्मा हैं ॥९७॥ संसारमें पराधीन तूने बहुत ही दुःख सहे इस समय उत्कृष्ट निर्जराकी इच्छा करता हुआ स्वाधीन होता हा भी कुछ सहन कर । भावार्थ-हे क्षपक ! इस संसारमें अनादि कालसे पराधीन होकर तूने बहुत दुःख सहे हैं। अब तू आसन्नमृत्यु है। पूर्वमें कभी नहीं मिली ऐसी सल्लेखना कर रहा है। यदि इस समय परोषह तथा उपसर्ग जनित थोड़े भो दुःखको सहन कर लेगा तो तेरे उत्कृष्ट निर्जरा होगी। इसलिये स्वाधीन होकर इन परोषह वा उपसर्गोको किञ्चित्काल शान्त परिणामसे सहन कर ॥९८॥ जब सक समाधिपरायण तथा आत्माको ध्याता हुआ तू समाधिशय्या पर आरूढ़ है तब तक प्रतिक्षण असंख्यात कर्मोंकी निर्जरा कर ॥९९।। भूख आदिक परीषहको जीतनेके विषयमें वृषभदेव आदिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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