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________________ १२ श्रावकाचार-संग्रह तृणपूलबृहत्पुख संभोम्योपरि पातिते । वायुभिः शिवभूतिः स्वं ध्यात्वाभदाशु केवली ॥१०१ न्यस्य भूषाधियाङ्गेषु सन्तप्ता लोहशृङ्खलाः। द्विट्पक्षः कोलितपदाः सिद्धाः ध्यानेन पाण्डवाः ॥१०२ शिरीषसुकुमाराङ्गः खाद्यमानोऽतिनिर्दयम् । शृगाल्या सुकुमारोऽसून विससर्ज न सत्पथम् ॥१०३ तीव्रदुःखैरतिक्रुधैः भूतारब्धैरितस्ततः। भग्नेषु मुनिषु प्राणानौज्झद्विधुच्चरः स्वयुक् ॥१०४ अचेन्नतियंग्देवोपसृष्टासंक्लिष्टमानसाः । सुसत्त्वा बहवोऽन्येऽपि किल स्वार्थमसाघयन् ॥१०५ तत्त्वमप्यङ्ग ! सङ्गत्य निःसङ्गेन निजात्मना । त्यजाङ्गमन्यथा भूरिभवक्लेशग्लंपिष्यसे ॥१०६ को तथा घोर उपसर्ग सहन करनेके विषयमें शिवभूति आदिक महामुनियोंको स्मरण कर ॥१०॥ आंधोके द्वारा चलायमान करके घासकी गंजीके ऊपर गिराये जाने पर शीघ्र अपने आत्माको ध्यान कर शिवभूति महामुनि शीघ्र केवलज्ञानी हुए। भावार्थ-शिवभूति महामुनिके ऊपर घासकी गंजी हवासे उड़ कर आ पड़ी थी। उस समय उन्होंने निर्विकल्प वृत्तिसे शुद्ध आत्माका ध्यान किया था। इसलिये वे तत्काल ही निर्वाणको प्राप्त हुए थे। यह अचेतनकृत उपसर्ग सहन करनेका उदाहरण है॥१०१॥ शत्रुपक्षीय कौरवोंके भानजा आदिके द्वारा तुम्हारे लिए ये स्वर्णाभषण हैं. ऐसा कथन करके अङ्गोंमें जाज्वल्यमान लोहेकी सांकलें पहना कर जमीनमें लोहेकी कोलोंसे जिनके पैर ठोक दिये हैं ऐसे पाण्डव आत्मध्यानमात्रसे सिद्ध हुए। भावार्थ-हे क्षपक ! पांचों पाण्डव जब तपस्या कर रहे थे तब कौरवोंके भानजे आदिने पुरातन वैर वश 'तुम्हारे लिए ये स्वर्णके आभूषण हैं' इस प्रकार, कषायपूर्वक दुष्टबुद्धिसे लोहेकी जाज्वल्यमान सांकलें पहना कर जमीनमें लोहेके कीलोंसे उनके पैर ठोक दिये थे परन्तु उन्होंने इस घोर उपसर्ग पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और आत्मध्यानमें ही लीन रहे। इस कारण, युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन मुक्तिको प्राप्त हुए तथा नकुल वा सहदेव सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुए। यह मनुष्यकृत घोरोपसर्ग सहनका उदाहरण है ॥१०२॥ शिरीषके फूलके समान सुकोमल शरीर वाला सुकुमार मुनि शृगालिनीके द्वारा अत्यन्तनिर्दयतापूर्वक खाया जाता हुआ प्राणोंको छोड़ता हुआ। किन्तु शुद्धात्मध्यानको नहीं छोड़ा। भावार्थसुकुमाल महामुनि अति सुकुमार थे । जब वे तपके हेतु वन गये तब वहां उनकी पूर्वभवकी वैरिन माके जीवने ( जो उसी वनमें शृगालिनी हुई थी) अतिशय निर्दयतापूर्वक उनका भक्षण किया, परन्तु सुकुमाल महामुनि आत्मध्यानरूपी सिद्धिमार्गसे तनिक भी विचलित नहीं हुए। यह तिर्यक्कृत घोरोपसर्ग सहनका उदाहरण है ॥१०३।। अत्यन्त क्रुद्ध अधम व्यंतरदेवोंके द्वारा प्रदत्त असह्य बाधाओंसे बहुतसे मुनियोंके इधर उधर भाग जाने पर भी विधुच्चर महामुनिने आत्मलीन रहते हुए प्राणोंको छोड़ा । भावार्थ-अतिक्रुद्ध अधम व्यन्तरोंके द्वारा प्रारब्ध अत्यन्त असह्य और भयङ्कर बाधाओंसे इतर मुनिजनोंके इधर उधर चले जाने पर भो विद्युच्चर महामुनि इस घोर उपसर्गसे विचलित नहीं हुए, किन्तु आत्मलीन रहकर मुक्त हुए। यह देवकृत उपसर्ग सहनका उदाहरण है ॥१०४॥ जिनागममें कहा गया है कि भिन्न भी बहुतसे महापुरुष अचेतन, मनुष्य, तिर्यञ्च और देवों द्वारा उपसर्गको प्राप्त होकर भी मनमें संक्लेशको प्राप्त नहीं होते हुए अपने इष्ट मोक्ष पुरुषार्थको सिद्ध कर चुके । भावार्थ-अचेतन, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा देव कृत घोरोपसर्गसहन करनेका एक एक दृष्टान्त बताया जा चुका है। इनके सिवाय और भी अन्य महामुनियोंने चारों ही प्रकारके उपसर्गों में से किसी एकके आने पर उसको बिना संक्लेशके सहन किया है तथा मोक्ष पाया है ॥१०५॥ हे क्षपक ! इसलिये तूं कर्मसे व्यतिरिक्त चिद्रुप अपने आत्मासे संयुक्त होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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