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________________ श्रावकाचार-संग्रह पूर्वेऽपि बहवो यत्र स्खलित्वा नोद्गताः पुनः । तत्परं ब्रह्म चरितुं ब्रह्मचर्य परं चरेः ॥८७ मिथ्येष्टस्य स्मरन् श्मधुनवनीतस्य दुभृतेः । मोपेक्षिष्ठाः क्वचिद्ग्रन्थे मनो मूच्र्छन्मनागपि ।।८८ बाह्यो प्रन्योऽङ्गमक्षाणामान्तरो विषयैषिता । निर्मोहस्तत्र निर्ग्रन्थः पान्थः शिवपुरेश्र्थतः ।।८९ कषायेन्द्रियतन्त्राणां तताहग्दुःखभागिताम् । परामृशन्मा स्म भवः शंसितवत ! तद्वशः ॥९० श्रुतस्कन्धस्य वाक्यं वा पदं वाक्षरमेव वा । यत्किश्चिद्रोचते तत्रालम्ब्य चित्तलयं नय ॥९१ शुद्धं श्रुतेन स्वात्मानं गृहीत्वार्य ! स्वसंविदा । भावयंस्तल्लयापास्तचिन्तो मृत्वैहि निर्वृतिम् ॥९२ तपता हुआ लटकते हुए सींकेपर रहनेवाला भौतिक तापस कोतवालके द्वारा कृत आर्त रौद्र ध्यानसे कुमरणको प्राप्त होता हुआ नरकको गया। भावार्थ-भौतिक तापस दिनमें पञ्चाग्नि तप तपता था तथा "मैं परधनका ऊँचा त्यागी हूँ, परायी भूमिका भी मैं स्पर्श नहीं करता हूँ" इस बातको घोषित करनेके लिये जो सदैव सीकेके ऊपर रहता था। वही साधु रात्रिमें कौशाम्बीकी जनताको लूटता था। इसलिये समय पाकर कोतवालके द्वारा पकड़ा गया और आर्तरौद्रपूर्वक मरण होनेसे नरक गया ॥८६॥ जिस ब्रह्मचर्य व्रतसे प्राचीन बहुतसे रुद्रादिक पतित होकर फिर अपनेको नहीं सम्हाल सके उस शुद्ध ज्ञान और शुद्ध आत्माको उत्कृष्ट या निर्विकल्पक अनुभव करनेको उस निरतिचार ब्रह्मचर्य महाव्रतको पालन कर। भावार्थ-जिस ब्रह्मचर्यसे स्खलित होकर वर्तमान मुनियोंकी तो बात ही क्या? प्राचीन रुद्रादिक भी स्खलित होकर फिर अपनेको नहीं सम्हाल सके। अतः हे क्षपक ! शुद्धज्ञान और शुद्धात्माके उत्कृष्ट अनुभवके लिये तूं उस निरतिचार ब्रह्मचर्य महाव्रतका पालन कर ॥८७॥ हे क्षपक ! अनुचित मनोरथवाले श्मश्रुनवनीतके कुमरणका स्मरण करनेवाला तूं किसी परिग्रहमें थोड़ा भी ममत्वकारी मनको उपेक्षा मत कर अर्थात् वशमें कर । भावार्थ हे क्षपक ! केवल परिग्रहकी वाञ्छाके कारण ही श्मश्रुनवनीतका दुर्मरण हुआ है इसको ध्यानमें रखकर "वह मेरा है, मैं इसका हूँ" इस प्रकार संकल्परूप भावपरिग्रहकी ओर यदि तेरे मनका झुकाव होवे तो तूं उसकी ओरसे अपने मनको रोक ।।८८॥ बाह्य परिग्रह शरीर है और इन्द्रियोंका अभिलाषीपना अन्तरंग परिग्रह है इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंमें ममत्वरहित व्यक्ति वास्तवमें मोक्षमार्गमें प्रस्थानकर्ता है। भावार्थ-शरीरको बाह्य और इन्द्रियोंके विषयोंके प्रति अभिलाषीपनको अन्तरंग परिग्रह कहते हैं। इन दोनों प्रकारके परिग्रहका ही नाम ग्रन्थ है। जो इस ग्रन्थसे रहित है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। अर्थात् शरीर और इन्द्रियविषयोंसे ममताका त्यागी ही निर्ग्रन्थ है और ऐसे निर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्गमें प्रस्थान करते हैं॥८९॥ भो प्रशस्तव्रतधारक, कषाय और इन्द्रियोंके परतन्त्र व्यक्तियोंके उस अवर्णनीय दुःखानुभवनको विचारता हुआ तूं इन कषाय और इन्द्रियोंके वश मत हो। भावार्थ-प्रशस्तरीतिसे व्रतधारक हे क्षपक ! कषाय और इन्द्रियोंके वश हो जानेवाले व्यक्तियोंके आगमोक्त दुःखानुभवनका विचारकर तू इन कषाय और इन्द्रियोंके वशमें मत हो ॥१०॥ हे क्षपक ! श्रुतस्कन्धका वाक्य अथवा पद अथवा अक्षर ही जो कुछ तेरे लिये रुचता हो उसमें आसक्त होकर चित्तकी तन्मयताको कर । भावार्थ-हे क्षपक ! अब तुम्हारी शक्ति क्षीण है। इसलिये श्रुतस्कन्धका आध्यात्मिक या बाह्य वाक्य, ‘णमो अरिहन्ताणं' इत्यादिक पद अथवा 'अ सि आ उ सा' इनमेंसे कोई एक अक्षर जो कुछ तुम्हें रुचता हो उसका अवलम्बन कर उसीमें अपने चित्तको तन्मय करो। क्योंकि श्रुतज्ञान सम्बन्धी वाक्य, पद या अक्षरका अवलम्बन निश्चय आराधनाका साधन है ॥९॥ हे क्षपक ! श्रुतसे राग, द्वेष और मोह रहित शुद्ध अपने चिद्रूप आत्माको ग्रहणकर स्वसंवेदनसे www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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