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________________ AC सागारधर्मामृत अहिंसाप्रत्यपि बढ़ भजनोजायते रजि । यस्त्वयहिंसासर्वस्वे स सर्वाः क्षिपते रुखः ॥८१ यमपालो ह्रदेऽहिसन्नेकाहं पूजितोऽप्सुरैः । धर्मस्तत्रैव मेण्डघ्नः शिशुमारेस्तु भक्षितः ॥८२ मा गां कामदुधां मिथ्यावादव्याघ्रोन्मुखी कृथाः । अल्पोऽपि हि मृषावावः श्वभ्रतुःखाय कल्पते ॥८३ अजैयष्टव्यमित्यत्र धान्यैस्त्रवार्षिकैरिति । व्याख्यां छागैरिति परावागावरकं वसुः ॥८४ आस्तां स्तेयमभिध्यापि विष्याप्याग्निरिव त्वया। हरन् परस्वं तदसून् जिहीर्षन्स्वं हिनस्ति हि ॥८५ रात्रौ मुषित्वा कौशाम्बी दिवा पञ्चतपश्चरन् । शिक्यस्यस्तापसोऽधोऽगात् तलारकृतदुर्मृतिः ॥८६ हैं ॥८॥ थोड़ी सी अहिंसाके प्रति भी दृढ़ताको धारण करनेवाला व्यक्ति उपसर्गके समय दुःखाभिभूत नहीं होता तथा जो सम्पूर्ण अहिंसाके विषयमें अधिकारी होता है वह सम्पूर्ण दुःखोंको नष्ट करता है । भावार्थ-जो थोड़ी भी अहिंसाके पालनमें दृढ़ता धारण करता है वह उपसर्गके उपस्थित होनेपर दुःखाभिभूत नहीं होता, तथा जो अहिंसापर पूर्णरोतिसे आधिपत्य प्राप्त कर लेता है, वह समस्त उपसर्गों पर विजय प्राप्त करता है ॥८॥ केवल एक दिन अहिंसावत पालनेवाला यमपाल चाण्डाल शिशुमार सरोवरमें जल-देवताओंके द्वारा पूजा गया और राजाके मेंढेका घातक सेठका पुत्र धर्म उस सरोवरमें ही शिशुमार जन्तुओंके द्वारा खाया गया। भावार्थ-बनारस नगरमें चतुर्दशीके दिन एकदेश अहिंसावतकी प्रतिज्ञाका पालक यमपाल चाण्डाल वहाँके शिशुमार सरोवरमें जलदेवों द्वारा पूजा गया और वहीं पर राजाके मेंढेका वध करनेवाला एक सेठका पुत्र धर्म शिशुमारोंके द्वारा भक्षण किया गया ।।८।। हे क्षपक ! इच्छित पदार्थदायक वाणीको असत्यवादनरूप व्याघ्रके सन्मुख मत कर, क्योंकि थोड़ा भी मिथ्या-भाषण नरकोंके दुःखोंके सम्पादनके लिये समर्थ होता है। विशेषार्थइच्छितपदार्थदायक होनेसे वाणी एकप्रकार की कामधेनु है । और जैसे व्याघ्र गायका भक्षक प्रसिद्ध है उसीप्रकार मिथ्याभाषण सत्यका घातक है ।।८३।। 'तीन वर्षके अजोंद्वारा यज्ञ करना चाहिये' इस आगमवचनके विषयमें तीन वर्ष पुराने धान्यके द्वारा इस अर्थको तीन वर्षके बकरों द्वारा इसप्रकार बदलकर वसु राजा नरकको गया। विशेषार्थ-अजशब्दके दो अर्थ हैं। पुराना धान और बकरा । 'अजैर्यष्टव्यम्' इस आगम उपदेशके समय अजशब्दका अर्थ पुराना धान है किन्तु वसु राजाने वहाँ वह अर्थ बदलकर तीन वर्षकी उम्रवाला बकरा अर्थ कर दिया था। जिससे यज्ञादिकोंमें हिंसाकी प्रवृत्ति हुई और उसके फलस्वरूप वसु राजा नरकको गया। 'न जायन्ते इति अजाः' जो अंकुरित नहीं हो सकते हैं उन्हें अज कहते हैं। ऐसे तीन वर्ष पुराने जो आदि धान्योंके द्वारा शान्ति वा पौष्टिक कार्य करना चाहिये यह क्षीरकदम्बकाचार्यका व्याख्यान था। परन्तु पर्वत और नारदके विवादके समयपर राजा वसु ने अजका अर्थ बकरा कर दिया था। तब से यज्ञादिकमें हिंसाकी प्रवृत्ति हुई । इस झूठके कारण राजा वसु नरकको गया ॥४॥ भो समाधिमरणार्थिन्, चोरी दूर रहे, परधनकी इच्छा भी तेरे द्वारा अग्निके समान दूर को जानी चाहिए, क्योंकि परधनको हरनेवाला धनीके प्राणोंको हरनेकी इच्छा करता हुआ अपने आत्माकी हिंसा करता है। भावार्थ-हे क्षपक ! तूं चोरी की तो बात ही क्या ? अपने अन्त:करणमें परधनकी इच्छाको भी स्थान मत दे। क्योंकि जो परधनको हरनेकी इच्छा करता है उसके परके प्राणोंके घातको इच्छा अवश्य रहती है और परघातकी इच्छा वास्तवमें आत्म-हिंसा ही है ॥८५।। रात्रिमें कौशाम्बी नगरीकी जनताको मूषकर (लूटकर ) और दिनमें - १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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