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श्रावकाचार-संग्रह प्रहासितकुदग्बद्धश्वभ्रायुःस्थितिरेकया। दृग्विशुद्ध्यापि भविता श्रेणिकः किल तीर्थकुत् ॥७३ एकैवास्तु जिने भक्तिः किमन्यैः स्वेष्टसाधनैः । या दोग्धि कामानुच्छिद्य सद्योऽपायानशेषतः ॥७४ वासुपूज्याय नम इत्युक्त्वा तत्संसदं गतः। द्विदेवारब्धविघ्नोऽभूत् पद्मः शक्रानितो गणी ॥७५ एकोऽप्यर्हनमस्कारश्चेद्विशेन्मरणे मनः । सम्पाद्याभ्युदयं मुक्तिश्रियमुत्कयति द्रुतम् ॥७६ स णमो अरिहंताणमित्युच्चारणतत्परः । गोपः सुदर्शनीभूय सुभगाह्वः शिवं गतः ॥७७ स्वाध्यायादि यथाशक्ति भक्तिपीतमनाश्चरन् । तात्कालिकाद्भुतफलादुदर्के तर्कमस्यति ॥७८ शले प्रोतो महामन्त्रं धनदत्तार्पितं स्मरन् । दृढशूर्पो मृतोऽभ्येत्य सौधर्मात्तमुपाकरोत् ॥७९ खण्डश्लोकैस्त्रिभिः कुर्वन् स्वाध्यायादि स्वयंकृतैः । मुनिनिन्दाप्तमौग्ध्योऽपि यमः सप्तर्धिभूरभूत्॥८० है ॥७४॥ वासुपूज्य भगवान्के लिये नमस्कार हो इसप्रकार उच्चारण कर दो देवोंके द्वारा किया गया है विघ्न जिसके ऐसा भी वासुपूज्य भगवान्के समवसरणको प्राप्त पद्मरथ राजा इन्द्रादिकसे पूज्य गणधर हुआ। भावार्थ-पद्मरथ राजाने वासुपूज्य भगवान्के समवसरणको प्रस्थान किया। उस समय उसके पूर्वभवके वैरी दो देवोंने अनेक विघ्न किये । परन्तु राजाने 'वासुपूज्यके लिये नमस्कार हो' इसप्रकार मंत्रका उच्चारण किया। जिससे उन देवोंके विहित विघ्न विफल हुए। और राजा पद्मरथ भगवान्के समवसरणमें निर्विघ्न पहुँच गया ॥७५॥ यदि मरणसमयमें एक भी अरिहन्त भगवान्को भक्तिपूर्वक किया गया नमस्कार मनमें प्रवेश करे तो वह महान् वृद्धिको सम्पादन करके शीघ्र मुक्तिलक्ष्मीको उत्कण्ठित करता है ॥७६॥ ‘णमो अरिहंताणं' इसप्रकार उच्चारणमें तत्पर वह जिनागमप्रसिद्ध सुभगनामक ग्वाल सुदर्शन सेठ होकर मोक्षको प्राप्त हुआ। भावार्थ-सुभग नामका ग्वाल ‘णमो अरिहंताणं' पदका उच्चारणकर मरनेपर वृषभदास सेठके यहाँ सुन्दर और सम्यग्दृष्टि सुदर्शन नामक पुत्र होकर मोक्षको प्राप्त हुआ ॥७७॥
भक्तिसे अनुरक्त चित्त वाला और शक्तिके अनुसार स्वाध्याय आदिकको करने वाला व्यक्ति तत्काल प्राप्त होने वाले अद्भुत फलकी प्राप्तिके योगसे उत्तर कालमें संशयको नष्ट करता है। भावार्थ-भक्तिसे; मन लगा कर और अपने बल वीर्यको नहीं छिपा कर जो मुनियोंके स्वाध्याय, वन्दना, प्रतिक्रमण आदि षट्कर्म करता है वह अपने आवश्यक कर्मोके करनेसे प्राप्त होने वाले चिदानन्दमय फलके द्वारा आगममें वर्णित स्वाध्यायादिके फलके विषयमें किसीको संदेह नहीं रहने देता ॥७८॥ शूली पर चढ़ाया गया दृढ़शूर्प चोर धनदत्तसेठके द्वारा दिये गये महामन्त्रको स्मरण करता हुआ मरा और सौधर्म स्वर्गसे आकर उस धनदत्तको उपकृत करता हुआ। भावार्थ-शूली पर चढ़े हुए दृढ़शूर्प चोरको धनदत्त सेठने महामन्त्र दिया था। उसका स्मरण करते हुए मरणको प्राप्त दृढ़शूर्प चोर सौधर्म स्वर्गमें ऋद्धिधारक देव हुआ। वहाँसे आकर उसने उस धनदत्त सेठका उपसर्ग निवारण कर अनेक उपकार किये ॥७९।। मुनिनिन्दासे प्राप्त हुई है मूढ़ता जिसको ऐसा भी यमनामक राजा मुनि होकर स्वरचित तीन खण्डश्लोकों द्वारा स्वाध्याय आदिक करता हुआ सात ऋद्धियोंका धारक महामुनि हुआ । विशेषार्थ-मुनिकी निन्दासे मूढ़ता को प्राप्त भी यम नामका राजा स्वनिर्मित इन 'कंडसि पुणुणं स्वेवसि रेगदहा। जवं पत्थेसि खाविदूं ॥१॥ अंणत्य कि फलो वहां तुम्ही इत्थ बुधिया छिदे । अंके च्छेद इको णिया ॥२॥ अह्मा दोणं दि भयं दिहादोदिसराभय तुह्म ॥३।। तीन खण्डश्लोकों द्वारा स्वाध्याय आदि करनेके प्रभावसे सप्त ऋद्धियों का धारक मुनि हुआ था। बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल और अक्षीण ये सात ऋद्धियाँ
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