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________________ सागारधर्मामृत कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नाहत्यार्यों महाव्रतम् । अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्यायिकाहति ॥३६ ह्रीमान्महधिको यो वा मिथ्यात्वप्रायबान्धवः । सोऽविविक्त पदे नाग्न्यं शस्तलिङ्गोऽपि नार्हति ॥३७ यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गमुक्तं जिनैः स्त्रियाः । पुंवत्तदिष्यते मृत्यु-काले स्वल्पीकृतोपधेः ॥३८ देह एव भवो जन्तोर्यल्लिङ्गं च तदश्रितम् । जातिवत्तद्गृहं तत्र त्यक्त्वा स्वात्मग्रहं विशेत् ॥३९ परद्रव्यग्रहेणैव यद् बद्धोऽनादिचेतनः । तत्स्वद्र व्यग्रहेणैव मोक्ष्यतेऽतस्तमावहेत् ॥४० अलब्धपूर्व कि तेन न लब्धं येन जीवितम् । त्यक्तं समाधिना शुद्धि विवेकं चाप्य पञ्चधा ॥४१ शय्योपध्यालोचान्नवैयावृत्येषु पञ्चधा । शुद्धिः स्यात् दृष्टिधीवृत्त-विनयावश्यकेषु वा ॥४२ विवेकोऽक्षकषायाङ्ग-भक्तोपधिषु पञ्चधा । स्याच्छय्योपधिकायान्न-वैयावृत्यकरेषु वा ॥४३ मुनिदीक्षा निषिद्ध है तथापि संस्तरारोहणके समय समाधिमरणार्थी श्रावकके इन दोषोंसे सहित होनेपर भी यदि वह मुनिदीक्षा की याचना करे तो उस समय निर्यापकाचार्य उसे मुनिदीक्षा देवे ॥३५॥ आश्चर्य है कि ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक लंगोटीमें ममता या परिग्रह सहित होनसे उपचरित भी महाव्रतके योग्य नहीं है। किन्तु आर्यिका साड़ीमें भी आसक्त न होनेसे उपचरित महाव्रतकी योग्य है ॥३६।। मुष्क और लिङ्ग दोषरहित भी जो लज्जावान् अधिकांश मिथ्यादृष्टि बन्धुवाला है वह बहुजनव्याप्त स्थानमें दिगम्बर दीक्षा धारणको योग्य नहीं है ॥३७॥ जिनेन्द्र भगवान्ने जो औत्सर्गिक अथवा दूसरा आपवादिक लिङ्ग कहा है वह मुनिलिङ्गका ग्रहण आदि मृत्यु समयमें अत्यल्प परिग्रह धारण करनेवाली आर्यिकाके लिये पुरुषकी तरह इष्ट है ॥३८॥ प्राणीका शरीर ही संसार है इसलिये देहाश्रित जो नग्नत्वादिक लिङ्ग या पद है उसके विषयमें भी ब्राह्मणत्वादि जातिकी तरह नग्नत्वादि लिंगकी आसक्तिको भी छोड़कर क्षपक शुद्ध स्वकीय चिद्रूप चिन्तवनमें प्रवेश करे ॥३९॥ यतः यह जीव शरीरादिक परद्रव्यकी ममतासे ही अनादिकालसे कर्माधीन हुआ है, अतः आत्मलीनतासे ही मुक्त हो सकता है। इसलिये मुमुक्षु उस आत्मलीनताको धारण करे ॥४०॥ जिस क्षपकने पाँच प्रकारकी शुद्धिको और विवेकको प्राप्त करके समाधिसे जीवन छोड़ा उसने कौन पहिले कभी नहीं प्राप्त हुआ महाभ्युदय नहीं पाया ? अर्थात् सभी कुछ प्राप्त करने योग्यको पा लिया है ॥४१॥ शय्या, उपधि, आलोचना, अन्न और वैयावृत्यके विषय में तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, विनय और आवश्यकके विषयमें शुद्धि पाँच प्रकार होती है। भावार्थ-बहिरंग शुद्धिके पाँच भेद हैं-~-शय्याशुद्धि, उपधिशुद्धि, आलोचनाशुद्धि, अन्तशुद्धि और वैयावृत्यशुद्धि । तथा अन्तरंग शुद्धिके भी पांच भेद हैं-सम्यग्दर्शन शुद्धि, सम्यग्ज्ञान शुद्धि, सम्यक्चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और आवश्यक शुद्धि । वसतिस्थान और संस्तरको शय्या कहते हैं। संयमके उपकरण पीछी कमण्डलु आदिको उपधि कहते हैं। गुरुके सामने अपने दोषों के निवेदनको आलोचना कहते हैं । परिचारकों द्वारा किये जानेवाले पादमर्दन आदिको वैयावृत्य कहते हैं । इन शय्या आदिक विषयोंमें प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम सहित जो प्रवृत्ति होती है उसे बहिरंगशुद्धि कहते हैं तथा सम्यग्दर्शन आदिकमें अतिचाररहित प्रवृत्तिको अन्तरंगशुद्धि कहते हैं ।।४२।। इन्द्रिय, कषाय, अंग, भक्त और उपधिके विषयमें तथा शय्या, उपधि, काय, अन्न और परिचारकके विषयमें विवेक पाँच प्रकार है। भावार्थ-अन्तरंगविवेकके पाँच भेद हैं। इन्द्रियविवेक, कषायविवेक, अंगविवेक, भक्तविवेक और उपधिविवेक तथा बहिरंगविवेकके भी पाँच भेद हैं-शय्याविवेक, उपधिविवेक, कायविवेक, अन्नविवेक और परिचारक: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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