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________________ ८२ श्रावकाचार-संग्रह श्रावकःश्रमणो वान्ते कृत्वा योग्यां स्थिराशयः। शुद्धस्वान्तरतः प्राणान् मुक्त्वा स्यादुदितोदयः ॥२५ समाधिसाधनचणे गणेशे च गणे च न । दुर्दैवेनापि सुकरः प्रत्यूहो भावितात्मनः ॥२६ प्राग्जन्तुनामुनाऽनन्ताः प्राप्तास्तद्भवमृत्यवः । समाधिपुण्यो न परं परमश्वरमक्षणः ॥२७ परं शंसन्ति माहात्म्यं सर्वज्ञाश्चरमक्षणे । यस्मिन्समाहिता भव्या भञ्जन्ति भवपञ्जरम् ॥२८ प्रायार्थी जिनजन्मादिस्थानं परमपावनम् । आश्रयेत्तदलाभे तु योग्यमहद्गृहादिकम् ॥२९ प्रस्थितो यदि तीर्थाय म्रियतेऽवान्तरे यदा । अस्त्येवाराधको यस्माद् भावना भवनाशिनी ॥३० रागाद द्वेषान्ममत्वाद्वा यो विराद्धो विराधकः । यश्च तं क्षमयेत्तस्मै शाम्येच्च त्रिविधेन सः ॥३१ तीर्णो भवार्णवस्तैर्ये क्षाम्यन्ति क्षमयन्ति च । शाम्यन्ति क्षमयतां ये ते दीर्घाजवञ्जवाः ॥३२ योग्यायां वसतौ काले स्वागः सर्वं स सूरये । निवेद्य शोधितस्तेन निःशल्यो विहरेत्पथि ॥३३ विशुद्धिसुधया सिक्तः सः यथोक्तं समाधये । प्रागुदग्वा शिरः कृत्वा स्वस्थः संस्तरमाश्रयेत् ॥३४ त्रिस्थानदोषयुक्तायाप्यापवादिकलिङ्गिने । महावताथिने दद्याल्लिङ्गमौत्सगिकं तदा ॥३५ मरणसमयमें पूर्ववर्णित परिकर्मको करके निश्चलचित्त तथा निर्मल निज चिद्रूपलीन होता हुआ प्राणोंको छोड़कर विविध अभ्युदयोंको भोगकर मोक्षका अधिकारी होता है ।।२५।। निर्यापकाचार्यके तथा संघके समाधिके साधनमें तत्पर रहनेपर आत्मचिन्तवनकारी समाधिकर्ता के पूर्वकृत अशुभकर्मके द्वारा भी विघ्न करना सरल नहीं होता ॥२६॥ इस प्राणीने इस भवके पहले अनन्त तद्भवमरण प्राप्त किये, किन्तु समाधिसे पवित्र इतर सर्वक्षणोंसे उत्कृष्ट अन्तिम क्षण प्राप्त नहीं किया । अर्थात् पहले कभी भी समाधिसहित मरण नहीं पाया ॥२७।। सर्वज्ञ मरणके उस अन्तिम समयमें उत्कृष्ट माहात्म्यको बताते हैं जिसमें रत्नत्रयकी आराधनामें सावधान भव्य संसाररूपी पिंजरेको तोड़ते हैं ॥२८॥ संन्यासमरणका इच्छुक क्षपक परमपवित्र जिनेन्द्रदेवके जन्मकल्याणक आदि स्थानको आश्रय करे, किन्तु उस स्थानका लाभ नहीं होनेपर योग्य जिनमन्दिर आदिको आश्रय करे ॥२९॥ समाधिमरणके हेतु तीर्थस्थानके लिये अथवा निर्यापकाचार्यके निकट जानेके लिये जाता हुआ व्यक्ति यदि बीचमें मर जाता है तो आराधक है ही। क्योंकि हार्दिक इच्छा संसारकी नाशक होतो है ॥३०॥ समाधिके हेतु तीर्थस्थानको प्रस्थित वह क्षपक स्नेहसे, क्रोधसे, अथवा मोहसे जो अपने द्वारा दुखित किया गया है उससे मन वचन काय द्वारा क्षमा माँगे ओर जो अपने प्रति वैमनस्य करनेवाला है उसको मन वचन कायसे क्षमा करे ॥३१।। जो क्षपक क्षमा करते हैं और क्षमा माँगते हैं उन्होंने संसाररूपी समुद्र पार किया। किन्तु जो क्षमा माँगनेवालोंको क्षमाप्रदान नहीं करते हैं वे दोर्घसंसारी हैं ॥३२॥ वह क्षपक आलोचना की विधिके योग्य स्थान में और समयमें समस्त अपने अपराधोंको निर्यापकाचार्यके लिये निवेदन करके उस निर्यापकाचार्यके द्वारा प्रायश्चित्तविधिके अनुसार शुद्ध और तीनों शल्यों रहित होता हुआ समाधिके मार्गमें प्रवृत्ति करे ।।३३।। वह क्षपक शारीरिक पवित्रता अथवा प्रायश्चित्तविधान सम्बन्धी विशुद्धिरूपी अमृतसे अभिषिक्त होता हुआ आगमानुकूल समाधिके लिये पूर्व की ओर अथवा उत्तर की ओर शिरको करके अनाकुल होता हुआ समाधिके हेतु चटाई या पाटा आदि आसनपर आरूढ़ होवे ॥३४॥ मुष्कद्वय और लिङ्ग सम्बन्धी दोषोंसे सहित आपवादिकलिङ्ग अर्थात् सग्रन्थ चिह्नके धारक भी महाव्रतोंकी याचना करनेवाले क्षपकके लिये निर्यापकाचार्य उस समय मुनिवेष अर्थात् मुनिदीक्षा देवे । भावार्थ-मुष्कद्वय ( अण्डकोश) और लिङ्गसम्बन्धी दोषसहितके लिये यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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