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________________ ८१ सागारधर्मामृत धर्माय व्याधिभिक्षजरादौ निष्प्रतिक्रिये । त्यक्तुं वपुः स्वपाकेन तच्च्युतौ वाशनं त्यजेत् ॥२० अन्नैः पुष्टो मलैर्दुष्टो देहो नान्ते समाधये । तत्कश्यों विधिना सायोः शोध्यश्चायं तदीप्सया ॥२१ सल्लेखनाऽसंलिखतः कषायान्निष्फला तनोः । कायोऽजडेदण्डयितुं कषायानेव दण्डयते ॥२२ अन्धोमदान्धैः प्रायेण कषायाः सन्ति दुर्जयाः। ये तु स्वाङ्गान्तरज्ञानात् तान् जयन्ति जयन्ति ते ॥२३ गहनं न तनोनिं पुंसः किन्त्वत्र संयमः । योगानुवृत्तेवियं तदाऽऽत्माऽऽत्मनि युज्यताम् ।।२४ नरक में लम्बा समय व्यतीत करना अच्छा नहीं है । भावार्थ-दूरभव्यपनेको परिस्थितिमें मुक्ति कदाचित् दूर भी हो, तो भी उसके पहले संसारमें रहनेका जो लम्बा काल है वह हिंसादिकसे उपार्जित पापोंके निमित्तसे नरकमें रहकर व्यतीत करनेकी अपेक्षा अहिंसादिक व्रतोंके आचरणसे उपाजित पुण्यके निमित्तसे स्वर्गमें व्यतीत करना बहुत अच्छा है। इसलिए मुक्तिके दूर रहनेपर भी जिन-भक्तोंको व्रतोंके आचरणमें सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए ||१९|| रोग, अकाल और बुढ़ापा आदिकके दुनिवार होनेपर आयुके नाशके कारण शरीरके नाशका समय आनेपर, अथवा घोर उपसर्गके उपस्थित होनेपर धर्मके लिए या भवान्तरमें धर्मको सहचर बनानेके लिये शरीरको छोड़नेके हेतु भाजनको त्याग देवे । भावार्थ-धर्मभ्रंशको सम्भावनाके लिये कारणभूत और जिनका प्रतिकार नहीं किया जा सकता ऐसे रोग, दुर्भिक्ष और बुढ़ापा आदिकके उपस्थित होनेपर धर्मको रक्षाके हेतु शरीर छोड़नेके लिये समाधिमरणार्थी श्रावक या मुनि भक्तप्रत्याख्यान ( अनशन ) करे । तथा अपने परिपाकसे आयुका स्वयं क्षय होनेके कारण शरीर छूटनेके समयपर और घोर उपसर्ग उपस्थित होनेपर भी अनशन करे। इस प्रकार शरीरत्यजन, शरीरच्यवन और शरीरच्यावनके भेदसे भक्तप्रत्याख्यान तीन प्रकारका होता है ॥२०॥ तरह तरहके अन्नोंसे पुष्ट और विकृत वात पित्त कफ आदिसे दूषित शरीर मरणसमयमें समाधिके लिये नहीं होता, इसलिये समाधिकी इच्छासे सल्लेखनापूर्वक यह शरीर क्षपकके कश करने योग्य तथा योग्य विरेचन वा वस्तिकर्म आदिकसे जठरगतमलको शुद्धि करने योग्य है । भावार्थ-नाना प्रकारके अन्नोंसे पुष्ट तथा वात पित्त और कफमेंसे किसी एक या अनेक मलोंसे दूषित शरीर समाधिमरणके लिये उपयोगी नहीं होता, इसलिये समाधिके इच्छुकोंको विधिपूर्वक शरीरको कृश करना चाहिये। और व्याधिके कारणभूत जठराशयके मलको योग्य विरेचन वा वस्तिकर्म आदिक द्वारा शुद्ध करना चाहिये ॥२१॥ कषायोंको नहीं घटानेवालेके शरीरका कश करना निष्फल है। क्योंकि विवेकियोंके द्वारा कषायोंको ही निग्रह करनेके लिए शरीर निग्रह किया जाता है। भावार्थ-काम क्रोध आदिक कषायोंको कृश नहीं करनेवालोंका उपवासादिक द्वारा अपने शरीरका कृश करना व्यर्थ है। क्योंकि ज्ञानीजन कषाय कम करनेके प्रयोजनसे ही शरीरको उपवासादिकसे कृश करते हैं ॥२२॥ बहुधा आहारसे उत्पन्न मानसिक हर्षसे स्व-पर भेदविज्ञानरहित व्यक्तियोंके द्वारा कषाय दुर्जय होते हैं और जो व्यक्ति आत्मा और शरीरके भेदविज्ञानसे उन कषायोंको जीतते हैं वे विजयी होते हैं ।।२३।। मनुष्यको शरीरका त्याग करना कठिन नहीं है। परन्तु शरीरपरित्यागके समयमें संयमका होना अतिकठिन है। इसलिये क्षपकके द्वारा अपना आत्मा मन वचन कायके व्यापारसे पृथक् करके अपने आत्मामें लीन किया जाना चाहिये ।।२४।। श्रावक अथवा मुनि ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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