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________________ श्रावकाचार-संग्रह आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा । स त्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिराजितम् ॥ १६ नृपस्येव यतेर्धर्मो चिरमभ्यस्तिनोऽस्त्रवत् । युधीव स्खलतो मृत्यौ स्वार्थभ्रंशोऽयशः कटुः ॥ १७ सम्यग्भावित मार्गोऽन्ते स्यादेवाराधको यदि । प्रतिरोधि सुदुर्वारं किञ्चिन्नोदेति दुष्कृतम् ॥१८ कार्यो मुक्तौ दवीयस्यामपि यत्नः सदा व्रते । वरं स्वः समयाकारो व्रतान्न नरकेऽव्रतात् ॥१९ ८० श्रावक उपवासादि बाह्य तपोंके द्वारा काय को और शास्त्रोपदेशरूपी अमृतके द्वारा कषायको घटाकर चतुर्विधसंघके सामने समाधिमरण ग्रहण करने के लिये तैयार होवे || १५ || चिरकाल तक आराधित भी धर्म मरण समय में विराधित होता हुआ विफल हो जाता है । किन्तु मृत्युसमय आराधित वह धर्म चिरकालसे संचित पापोंको नष्ट करता है । भावार्थ - दीर्घकाल तक आराधित भी धर्म यदि मरण समय पर बिगाड़ दिया जावे तो वह सब आराधना निष्फल हो जाती है और यदि मरणसमय सध जावे तो वह प्राणीके असंख्यात कोटि भवों में उपार्जित पापोंका विनाश करती है ॥ १६ ॥ चिरकाल तक अभ्यास करने वाले परन्तु युद्धमें लक्ष्यसे चूकने वाले राजाके शस्त्रके समान चिरकाल तक अभ्यास करने वाले, तथापि मरणके समय भ्रष्ट होनेवाले मुनिका धर्म अकीर्ति से कटुक परिणाम वाला तथा इष्ट प्रयोजनका घातक होता है । भावार्थ - जैसे चिरकाल तक शस्त्रास्त्रोंका अभ्यास करनेवाला राजा युद्ध के समय सावधानी नहीं रखनेके कारण चूक जाय तो उसका मरण, अयश, पराजय और राज्यनाश हो जाता है और वह इष्टसिद्धि नहीं कर पाता । उसी प्रकार यति भी चिरकाल तक धर्मका अभ्यास करके यदि मरण समय धर्मकी आराधना में सावधान नहीं रहकर उसकी विराधना करता है तो उसका भी अपयश और आत्मकल्याणका घात होता है और उसकी जीवनभरको आराधना व्यर्थ हो जाती है || १७|| यदि समाधिके समयपर समाधिमरणमें बाधक हजारों प्रयत्नोंसे भी नहीं रुकनेवाला नामनिर्देशरहित कोई पूर्वकृत दुष्कर्म उदयको प्राप्त नहीं होता तो अपने जीवनमें भली प्रकार रत्नत्रयकी आराधना करनेवाला व्यक्ति मरण समयमें सल्लेखना साधक होता हो है । विशेषार्थ -- चिरकाल रत्नत्रयकी आराधना करनेवाले साधुजन भी पूर्वोपार्जित तीव्र अशुभ कर्मके उदयसे मरणसमय में सम्यग्दर्शनादिकसे च्युत हो जाते हैं । तथा जिनके बिना अभ्यासके सल्लेखनाकी सिद्धि होती है वह उनके लिये केवल अन्धनिधिलाभ है । अर्थात् जैसे अन्धेको कभी योगायोगसे बिना प्रयत्नके भी निधिका लाभ हो जाता है उसी प्रकार यह उसकी समाधिमरणकी प्राप्ति समझना चाहिये । तीव्रकर्मके उदयसे समाधि च्युत होता देखकर तथा योगायोगसे बिना प्रयत्न के भी समाधिमरण प्राप्त होता देखकर आश्चर्यमें नहीं पड़ना चाहिये और केवल देवाधीन धर्माराघनाकी सिद्धिका आग्रह भी नहीं करना चाहिये । किन्तु जिनवचनको मानकर मृत्युसमय में समाधिके लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये । क्योंकि दैवयोगसे प्राप्त अचलसिद्ध समाधि आदर्श नहीं मानी जा सकती । जिसने पहले आराधनाका अभ्यास नहीं किया किन्तु अन्त समय में जिसको समाधिमरणकी प्राप्ति हो उसको वृक्षके सूखे ठू ठसे निधिका लाभ समझाना चाहिये। दूसरोंके लिए यह उदाहरण नहीं हो सकता । इससे यह सिद्ध है कि यदि अन्तसमय में किसी तीव्रकर्मका उदय नहीं आवे तो आराधनाका अभ्यास करनेवालोंको अन्तसमय में आराधनाकी सिद्धि अवश्य होती है || १८ || मुक्ति के अतिदूर रहनेपर भी सर्वदा व्रताचरणके विषय में प्रयत्न करना हो चाहिये । क्योंकि व्रताचरणके निमित्त से स्वर्ग में अपना लम्बा समय व्यतीत करना अच्छा है । किन्तु व्रताचरणके अभाव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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