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________________ ७९ सागारधर्मामृत कालेन बोपसर्गेण निश्चित्यायुः क्षयोन्मुखम् । कृत्वा यथाविधि प्रायं तास्ताः सफलयेत् क्रियाः ॥९ देहादिवैकृतः सम् ङ् निमित्तैस्तु सुनिश्चिते । मृत्यावाराधनामग्नमतेर्दूरे न तत्पदम् ॥१० भृशापवतंकवशात् कदलीघातवत्सकृत् । विरमत्यायुषि प्रायमविचारं समाचरेत् ॥११ क्रमेण पपरवा फलवत् स्वयमेव पतिष्यति । देहे प्रीत्या महासत्त्वः कुर्यात्सल्लेखनाविधिम् ॥१२ जन्ममृत्युजरातङ्का. कायस्यैव न जातु मे। न च कोऽपि भवत्येष ममत्यले स्तु निर्ममः ॥१३ पिण्डे जात्यापि नाम्नापि समौ युक्त्यापि योजितः । पिण्डोऽस्ति स्वार्थनाशार्थों यदा तं हापयेत्तदा॥१४ उपवासादिभिः कायापायं च श्रतामृतैः । संलिख्य गणमध्ये स्यात समाधिमरणोधमी ॥१५ करनेवालेके आत्मघातका प्रसंग नहीं होता क्योंकि वह आत्मघात कपायके आवेगसे विप आदिकसे प्राणोंको नष्ट करनेवाले व्यक्तिके ही होता है ॥८॥ आयपूर्ण होने के कालसे अथवा उपसगसे आयुको क्षयके सन्मुख निश्चय करके विधिपूर्वक संन्यासयुक्त उपवासको करके नैष्टिक अवस्था में गृहीत दार्शनिक आदि प्रतिमासम्बन्धी नित्य और नैमित्तिक सम्पूर्ण क्रियाओंको सफल करे ।।९।। देहादिकके विकारों द्वारा और ज्यातिविद्या और शकुन आदि निमित्तों द्वारा मत्यु के निश्चित होने पर निश्चय आराधनामें आसक्त है मन जिसका ऐसे समाधिमरण करनेवालेके वह सिद्ध पद दूर नहीं है । भावार्थ-शीघ्रमरणसूचक देहविकार या वाणीविकार आदिसे और ज्योतिषशास्त्र, कर्णपिशाचिनी विद्या तथा शकुन आदि निमित्तों द्वारा मरणका निश्चय होनेपर जो अपनी सल्लेखनाकी आराधनामें मग्न हो जाते हैं उनके निर्वाण दूर नहीं है ।१०।। मोक्षाभिलापो अगाढ़ अपमृत्युके कारण कदलीघातके समान एकदम आयुके नाशकी स्थिति उपस्थित होने पर समाधिके योग्य स्थान आदिके हेतु दौड़ धूप किये बिना भक्तप्रत्याख्यान सार्वकालिक संन्यासको धारण करे । भावार्थ-जैसे शस्त्र द्वारा छिन्न केलेका वृक्ष एक दम गिर जाता है उसी प्रकार अगाढ़ अपमृत्युके कारण एकदम आयुनाशको सम्भावना उपस्थित होने पर समाधिके योग्य स्थान आदि सामग्रीके हेतु दौड़धूप किये बिना भक्तप्रत्याख्यान संन्यास धारण करे और शुद्ध स्वात्मध्यानमें लोन होवे ॥११॥ क्रमसे पककर फलके समान अपने आप ही शरीरके पतन होनेपर अनिवार्य धैर्यधारक श्रावक प्रीतिसे सल्लेखनाकी विधिको करे । भावार्थ-जैसे पकनेपर फल स्वयं डालोसे जमीनपर गिर जाता है उसी प्रकार आयुके निषेकोंका क्षय होनेपर शरोर भी मृत्युको प्राप्त हो जाता है। इसलिए ऐसी मृत्युके समय प्रोति-पूर्वक सल्लेखना अवश्य धारण करना चाहिये ।।१२।। जन्म, मरण, बुढ़ापा और रोग ये सब शरीरके ही होते हैं, आत्माके कदाचित् नहीं। और यह शरीर मेरा कोई भी नहीं है इस प्रकार शरीरमें ममत्वरहित होवे ॥१३।। आश्चर्य है कि पुद्गलत्वजातिसे तथा पिण्ड नामसे समान और शरोरमें शास्त्रोक्त विधिसे प्रयुक्त किया गया आहार जिस समय अपने प्रयोजन का घातक होता है उस समय उस आहारको त्याग कर देना चाहिये। भावार्थ-पिण्डशब्दका अर्थ आहार और शरीर दोनों हैं और दोनों ही पुद्गलकी पर्यायें हैं। शरीरमें युक्तिपूर्वक प्रयुक्त आहारादिक शरीरका बल और ओज बढ़ाता है। बलवान् और ओजस्वी शरीर धर्मसिद्धिके लिएउपयोगी पड़ता है। परन्तु जाति तथा नामसे समान और युक्तिसे प्रयुक्त भी आहार पिण्ड जब शरीररूपी पिण्डमें उपयोगी नहीं पड़े तो उस समय भोजनका त्याग कर देना चाहिये ॥१४॥ साधक उपवास आदिक बाह्य तपोंके द्वारा शरीरको और शास्त्रोपदेशरूपी अमृतोंसे कषायको कृश करके चतुर्विध संघके समक्ष समाधिमरणके लिये उद्यमी होवे । भावार्थ-साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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