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________________ ८४ - श्रावकाचार-संग्रह निर्यापके समयं स्वं भक्त्यारोप्य महावतम् । निश्चेलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत् ॥४४ जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबन्धमजन् । सनिदानं संस्तरगश्चरेच्च सल्लेखनां विधिना ॥४५ यतीनियुज्य तत्कृत्ये यथाहं गुणवत्तमान् । सूरिस्तं भूरि संस्कुर्यात् स ह्यार्याणां महाक्रतुः ॥४६ योग्यं विचित्रमाहारं प्रकाश्येष्टं तमाशयेत् । तत्रासजन्तमज्ञानात् ज्ञानाख्यानै निवर्तयेत् ॥४७ विवेक । मेरा चिद्रूप सबसे भिन्न है इस प्रकार अपने भिन्नरूप सिद्ध करने योग्य अध्यवसायको विवेक कहते हैं। इन्द्रियादिकोंसे अपने पृथग्भावका चिन्तवन भावविवेक या अन्तरविवेक कहलाता है। तथा शय्या आदिकसे अपने पृथग्भावका चिन्तवन द्रव्यविवेक या बहिरंगविवेक कहलाता है ॥४३॥ समाधिकर्ता मुनि अपनेको निर्यापकाचार्यके ऊपर समर्पित करके भक्तिसे महाव्रतोंको धारण करके पुनः भावना भावे, तथा मुनिसे भिन्न श्रावक धारण नहीं किये गये ही महाव्रतोंको भावना भावे । भावार्थ-महाव्रती मुनि, क्षपक अवस्थामें अपनेको निर्यापकाचार्यके लिये सौंपकर भक्तिपूर्वक ग्रहण किये हुए महावतोंकी पुनः पुनः भावना भावे । और अणुव्रती सग्रन्थ श्रावक क्षपक, महाव्रतोंको धारण करनेकी भावना भावे। महाव्रतोंकी भावनाके सम्बन्धमें सचेल और अचेल क्षपकोंमें यही अन्तर है ॥४४॥ संस्तर पर आरूढ क्षपक जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रोंमें प्रेम, निदानसहित सुखानुबन्धको छोड़ता हुआ शास्त्रोक्त विधिसे सल्लेखनाको करे । विशेषार्थजीविताशंसा, मरणाशंसा, सुहृदनुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये पांच सल्लेखनाके अतिचार हैं। जीविताशंसा-यह शरीर अवश्य हेय है और जलबुद्बुदके समान अनित्य है इत्यादि बातका स्मरण नहीं करते हुए इस शरीरकी स्थिति कैसे रहेगी, इस प्रकार शरीरके प्रति आदर भावको जीविताशंसा कहते हैं । अथवा अपना सत्कार विशेष देखनेसे तथा अनेक व्यक्तियोंके द्वारा अपनी प्रशंसा सुननेसे ऐसा विचार करना कि चार प्रकारके आहारका त्याग करके भी मेरा जीवन कायम रहे तो बहुत अच्छा है, क्योंकि यह सब उपरोक्त विभूति मेरे जीवनके निमित्तसे ही हो रही है इस प्रकार जीवनकी आकांक्षाको जीविताशंसा कहते हैं । अथवा अपनेको स्वस्थ होता हुआ देखकर जीनेकी इच्छा करना भी जीविताशंसा कहलाती है। मरणाशंसा–प्राप्त जीवनमें रोगोंके उपद्रवकी आकुलतासे संश्लिष्ट क्षपकको 'मेरा शीघ्र मरण हो जावे तो बहुत अच्छा हो' इस प्रकार परिणामोंके होनेको मरणाशंसा कहते हैं। सुहृदनुराग-बाल्यकालमें अपने मित्रोंके साथ हमने ऐसे खेल खेले हैं, हमारे अमुक मित्र विपत्ति पड़ने पर सहायता करते थे और हमारे मित्र उत्सवोंमें तत्काल उपस्थित होते थे इस प्रकार बालमित्रोंके प्रति अनुराग भावोंको पुनः पुनः स्मरण करना सुहृदनुराग कहलाता है। सुखानुबन्ध-मैंने ऐसे भोग भोगे हैं, मैं ऐसी शय्याओं पर सोता था, मैं इस प्रकार खेलता था इत्यादि प्रकारसे पूर्व कालीन सुख-भोगका पुनः पुनः स्मरण करना सुखानुबन्ध कहलाता है । निदान-इस दुस्तर तपके प्रभावसे मुझे जन्मान्तरमें इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती इत्यादि पदकी प्राप्ति होवे इस प्रकार भविष्यमें अभ्युदयकी वाञ्छाको निदान कहते हैं ॥४५॥ निर्यापकाचार्य क्षपककी परिचर्याके विषयमें यथायोग्य सम्यग्दर्शनादिक उत्तमगुणोंके धारक यतियोंको नियुक्त करके उस क्षपकको विशेष संस्कृत करे। क्योंकि वह समाधि-साधनाविधि यतियोंका परमयज्ञ है ॥४६॥ निर्यापकाचार्य उस क्षपकको उचित या भक्ष्य तथा नानाप्रकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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