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________________ श्रावकाचार-संग्रह निरूढसप्तनिष्ठोऽङ्गिघातानत्वात् करोति न । कारयति कृष्यादीनारम्भविरतस्त्रिधा ॥२१ यो मुमुक्षुरघादिभ्यत् त्यक्तुं भक्तमपीच्छति । प्रवर्तयेत्कथमसौ प्राणिसंहरणीः क्रियाः ॥२२ स ग्रन्थविरतो यः प्राग्वतवातस्फुरद्धृतिः । नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ॥२३ अथाहूय सुतं योग्यं गोत्रलं वा तथाविधम् । ब्रूयादिदं प्रशान् साक्षाज्जातिज्येष्ठसधर्मणाम् ॥२४ चिह्नरूप सूत्रको धारण करता है वह ब्रह्मचारी कहलाता है। ब्रह्मचारीका नाम परिवर्तन कर दिया जाता है। और राजकुमारको छोड़कर शेष सब ब्रह्मचारी भिक्षासे अपना उदर-निर्वाह करते हैं। जो पूर्वोक्त नित्य और नैमित्तिक अनुष्ठानमें स्थित रहता है उसे गृहस्थ कहते हैं । जातिक्षत्रिय और तोर्थक्षत्रियके भेदसे क्षत्रिय दो प्रकारके हैं। जिन्होंने जिनरूपको धारण नहीं किया है, जो खण्डवस्त्र धारण करते हैं और जो निरतिशय तपश्चर्या में उद्यत होते हैं उन्हें वानप्रस्थ कहते हैं। जो जिनरूपको धारण करते हैं उन्हें भिक्षु या साधु कहते हैं। साधुके अनेक भेद हैं-देशप्रत्यक्ष और सकलप्रत्यक्ष ज्ञानके धारीको मुनि कहते हैं। ऋद्धिप्राप्त साधुको ऋषि कहते हैं । दोनों श्रेणियोंपर आरूढ़ साधुको यति कहते हैं। दूसरे साधुवर्गको अनागार कहते हैं । विक्रिया ऋद्धि और अक्षीणमहानस ऋद्धिके धारकको राजर्षि कहते हैं। बुद्धिऋद्धि और औषधऋद्धिके अधिपतिको ब्रह्मर्षि कहते हैं। विविध नयोंमें पटु व्यक्तिको देवर्षि कहते हैं। और जो विश्वका वेत्ता है उसे परमर्षि कहते हैं ॥२०॥ प्राथमिक सात प्रतिमाओंका निर्दोष पालक जो श्रावक प्राणिहिंसाका कारण होनेसे खेती आदि कर्मोको मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनासे न स्वयं करता है तथा न दूसरोंसे करवाता है वह श्रावक आरम्भत्याग प्रतिमावाला कहलाता है। भावार्थ-पहली सात प्रतिमाओं का निर्दोष पालक जो व्यक्ति मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनसे आरम्भका त्याग करता है वह आरम्भत्याग नामक अष्टमप्रतिमाका धारक कहलाता है। जो सात प्रतिमाओंको निर्दोषरीतिसे पालते हुए भी पुत्रादिकके प्रति अनुमतिके न देने में कदाचित् असमर्थ हो तो वह छह भंगसे भी आरम्भत्याग करता हुआ आरम्भत्याग प्रतिमावान् कहलाता है ।।२१।। मोक्षकी इच्छा रखनेवाला जो आरम्भविरत श्रावक पापसे डरता हुआ भोजनको भी छोड़नेके लिये इच्छा करता है वह आरम्भविरत श्रावक प्राणिघातकारक क्रियाओंको किस प्रकार करेगा और करावेगा अर्थात् न करेगा और न करावेगा ॥२२॥ पूर्वोक्त आठ प्रतिमाविषयक व्रतोंके समूहसे स्फुरायमान है सन्तोष जिसके ऐसा जो श्रावक ये वास्तु क्षेत्रादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूँ ऐसा संकल्प करके वास्तु और क्षेत्र आदिक दश प्रकारके परिग्रहोंको छोड़ देता है वह श्रावक परिग्र हत्याग प्रतिमावान् कहलाता है । भावार्थ-प्रथम आठ प्रतिमाओंका पूर्णरूपसे पालन करनेसे जिसका धैर्य सदा जागृत रहता है और जो क्षेत्र वास्तु आदि दश बाह्य परिग्रह मेरे योग्य नहीं हैं और मैं भी इनका स्वामी नहीं हूँ इस प्रकार ममकार और अहंकारके त्यागके भावको धारण करके सर्व प्रकारके परिग्रहका त्याग करता है, परन्तु केवल अपने शरीरको रक्षाके योग्य वस्त्रादिको तथा संयमके साधनोंको रखता है वह परिग्रहत्याग प्रतिमावान् कहलाता है ।।२३।। इसके अनन्तर शान्तचित्त नवम प्रतिमावान् वह श्रावक योग्य अर्थात् अपने भारको चलाने में समर्थ पुत्रको अथवा योग्य पुत्रके अभावमें योग्यपुत्रके समान गोत्रज भाई या उनके पुत्र आदिको बुला करके सजातीय मुखिया और साधर्मियोंके समक्ष इस वक्ष्यमाण वचनको कहे ॥२४॥ हे प्रियपुत्र, आज तक हमने यह गृहस्थाश्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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