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________________ सागारधर्मामृत रात्रिभक्तवतो रात्रौ स्त्रीसेवावर्तनादिह । निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतुराहारवर्जनात् ॥१५ तत्तादृक्संयमाभ्यासवशीकृततमनास्त्रिधा । यो जात्वशेषा नो योषा भजति ब्रह्मचार्यसौ ॥१६ अनन्तशक्तिरात्मेति श्रुतिर्वस्त्वेव न स्तुतिः । यत्स्वद्रव्ययुगात्मैव जगज्जैत्रं जयेत्स्मरम् ॥१७ विद्या मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति किङ्करन्त्यमरा अपि । वराः शाम्यन्ति नाम्नापि निर्मल ब्रह्मचारिणाम् ।१८ प्रथमाश्रमिणः प्रोक्ता ये पञ्चोपनयादयः । तेऽधीत्य शास्त्र स्वीकुर्युर्दारानन्यत्र नैष्ठिकात् ॥१९ ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे । चत्वारोऽङ्गे क्रिया भेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः ॥२० गया है और दूसरे ग्रन्थोंमें रात्रिमें चारों ही प्रकारके आहारोंको छोड़नेसे रात्रिभवतत्यागी कहा जाता है । भावार्थ-चारित्रसार आदि शास्त्रोंके अनुसार लिखे हुए इस ग्रन्थमें रात्रिमें ही स्त्रोसेवन करना दिनमें स्त्रीसेवन नहीं करना रात्रिभक्तवत माना गया है और रत्नकरण्ड आदि शास्त्रोंमें भक्त शब्दका अर्थ आहार मानकर रात्रिमें चार प्रकारके आहारके त्यागको रात्रिभक्त कहा है ॥१५।। उस अर्थात् पूर्वोक्त छह प्रतिमाओंमें कहे गये और उस प्रकारके अर्थात् क्रमसे बढ़ाये गये संयमके अभ्याससे वशमें कर लिया है मनको जिसने ऐसा जो श्रावक मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनासे सम्पूर्ण स्त्रियोंको कभी भी सेवन नहीं करता है वह श्रावक ब्रह्मचर्य प्रतिमावान् कहलाता है ।।१६।। आत्मा अनन्तशक्तिवाला है यह आगमका वचन यथार्थ ही है, प्रशंसामात्र नहीं है, क्योंकि आत्मस्वरूप में लीन होनेवाला आत्मा ही संसारके प्राणियोंको जीतनेवाले कामको जीतता है । भावार्थ-आत्मा अनन्तशक्तिवाला है यह कथन यथार्थ है, प्रशंसामात्र नहीं । क्योंकि अपने ब्रह्ममें लीन होनेवाला ब्रह्मचारी आत्मा अनन्तसंसारी जीवोंपर विजय प्राप्त करनेवाले जगज्जेता कामको जीतता है। अर्थात् अनन्तप्राणियोंके विजेता कामको जीतनेसे आत्मलीन आत्मा अनन्तशक्तिवाला सिद्ध होता है ॥१७॥ निरतिचार ब्रह्मचर्यपालकोंके विद्याएँ और मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं, देव भी नौकरके समान आचरण करते हैं और नामोच्चारणमात्रसे भी दुष्ट प्राणी शान्त हो जाते हैं ॥१८॥ जो प्रथम आश्रमवाले मौंजीबन्धन-पूर्वक व्रतग्रहण करनेवाले उपनय आदिक पाँच प्रकारके ब्रह्मचारी कहे गये हैं वे सब नैष्ठिकके बिना शेष सब शास्त्रोंको पढ़कर स्त्रीको स्वीकार कर सकते हैं। विशेषार्थ-ब्रह्मचारीके पांच भेद हैं-उपनय, अवलम्ब, अदीक्षा, गूढ़ और नैष्ठिक । इनमेंसे नैष्ठिक विवाह नहीं करा सकता है। शेष चार विद्याध्ययनके बाद विवाह करा सकते हैं। यज्ञोपवीतके धारक समस्त विद्याओंका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे उपनय ब्रह्मचारी कहलाते हैं । क्षुल्लकरूपसे रहकर आगमका अध्ययन पूरा करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अवलम्बन ब्रह्मचारी कहलाते हैं । विना किसी भेषके अध्ययन करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अदीक्षा ब्रह्मचारी कहलाते हैं। जो कुमार मुनि बनकर विद्याका अभ्यास करते हैं और दुःसहपरीषह, बन्धुजनकी प्रेरणा या राजाकी शासनसता आदिके कारण मुनिवेषको छोड़कर गृहस्थधर्म स्वीकार कर लेते हैं वे गूढ़ ब्रह्मचारी कहलाते हैं। तथा चोटी रखनेवाले और देवपूजामें तत्पर नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं ।।१९|| सप्तम अङ्गमें वर्णकी तरह क्रियाके भेदसे ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ और भिक्षु ये चार आश्रम कहे गये हैं। विशेषार्थ-सप्तम उपासकाध्ययन अङ्गमें ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु ये चार आश्रम कहे गये हैं। वर्णव्यवस्थाके समान क्रियाके भेदसे इनमें भेद है। जो चोटी रखता है, शुक्लवस्त्र पहिनता है, लंगोटी लगाता है, जिसका वेश विकाररहित है तथा जो व्रतके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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