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________________ ७३ सागारधर्मामृत ताताद्य यावदस्माभिः पालितोऽयं गृहाश्रमः । विरज्यैनं जिहासूनां त्वमद्यार्हसि नः पदम् ॥२५ पुत्रः पुपूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः । यः उपस्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥२६ तदिदं मे धनं धम्यं पोष्यमात्मसात्कुरु । सैषा सकलदतिहि परं पथ्या शिवाथिनाम् ॥२७ विदीर्णमोहशार्दूलपुनरुत्थानशङिनाम् । त्यागक्रमोऽयं गृहिणां शक्त्यारम्भो हि सिद्धिकृत ॥२८ एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं मोहाभिभवहानये । किञ्चित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन्सुधीः ॥२९ नवनितापरः सोऽनुमतियार तस्त्रिधा । यो नानुमोदते ग्रन्थमारम्भं कर्म चैहिकम् ॥३० चैत्यालयस्यः स्वाध्यायं कुर्यान्मध्याहरन्दनात् । ऊर्ध्वमामन्त्रितः सोऽद्याद गृहे स्वस्य परस्य वा॥३१ यथाप्राप्तमदन्देहसिद्धयर्थं खलु भोजनम् । देहश्च धर्मसिद्ध्यर्थं मुमुक्षुभिरपेक्ष्यते ॥३२ । सा मे कथं स्यादुद्दिष्टं सावधाविष्टमश्नतः । कहि भैक्षामृतं भोक्ष्ये इति चेच्छेज्जितेन्द्रियः ॥३३ पालन किया आज विरक्त होकरके इस गृहस्थाश्रमको छोड़नेकी इच्छा करनेवाले हमारे स्थानको स्वीकार करनेके लिये तुम योग्य हो ॥२५।। सुविधिनामक राजाके केशवपुत्रकी तरह अपनी आत्माको शुद्ध करनेको इच्छा करनेवाले पिताका जो उपकार करता है वह पुत्र कहलाता है। और इससे भिन्न पुत्र पुत्रके बहानेते शत्रु है । विशेषार्थ-श्लोकमें जो सुविधि और केशवका उल्लेख किया गया है उसका भाव यह है-ऋषभदेव अपने एक भवमें सुविधि राजा थे। सुविधिके पूर्वभवकी पत्नीका नाम श्रीमती था। यह श्रीमतोका जीव मरने पर सुविधि राजाके केशव नामक पुत्र हुआ था। पुत्रप्रेमवश सुविधि गृहस्थाश्रम छोड़ने में असमर्थ थे। इससे श्रावक रहते हुए भी उत्कृष्ट तप तपते थे और केशव पुत्र उन्हें सर्व प्रकारसे सहाय था ॥२६॥ इसलिये हे प्रिय पुत्र, मेरे इस धनको, पात्रदानादिकरूप धार्मिक क्रियाओंको और पालन पोषण करने योग्य स्त्री माता पिता आदिको तुम अपने अधीन करो क्योंकि आगममें कही गई यह सकलदत्ति मोक्ष चाहनेवालोंके अत्यन्त कल्याणकारिणी है ।।२७।। नष्ट किये गये मोहरूपी व्याघ्रके फिरसे उठनेकी शंका करनेवाले गृहस्थोंका यह त्यागका क्रम है क्योंकि अपनी शक्तिके अनुसार ही किया गया आरम्भ अभिलषितकी सिद्धि करनेवाला होता है ॥२८॥ तत्त्वज्ञानी श्रावक इस प्रकार सम्पूर्ण परिग्रहको छोड़कर मोहके द्वारा होनेवाले आक्रमणको नष्ट करनेके लिये उपेक्षाको विचारता हुआ कुछ काल तक घरमें रहे ॥२९।। प्राथमिक नौ प्रतिमाओंके पालनमें तत्पर जो श्रावक मन वचन कायसे धन धान्यादिक परिग्रहको, कृष्यादिक आरम्भको और इस लोक सम्बन्धी विवाहादिक कार्योंकी अनुमोदना नहीं करता है अर्थात् उक्त कार्यों के विषयमें अपनी अनुमति नहीं देता है वह श्रावक अनुमति त्याग प्रतिमावान् कहलाता है ।।३०॥ वह अनुमतित्याग प्रतिमाधारी चैत्यालयमें स्थित होता हुआ स्वाध्यायको करे और मध्याह्न वन्दनाके बाद आमन्त्रित होता हुआ अपने पुत्रादिकके घरमें अथवा जिस किसी धामिक व्यक्तिके घरमें भोजन करे। यह दशमप्रतिमाकी विधि है ॥३१।। कर्मानुसार प्राप्त आहारको खाने वाला जितेन्द्रिय अनुमतित्यागी इस प्रकार इच्छा करे कि-मोक्षाभिलाषी व्यक्तियोंके द्वारा शरीरको रक्षाके लिये भोजन और धर्मको सिद्धिके लिये शरीर निश्चयसे अपेक्षित होता है । किन्तु सावध कर्मसे मिले हुए अपने निमित्तसे बनाये गये आहारको खाने वाले मेरे वह धर्मकी सिद्धि कैसे होगी ? इसलिये मैं भिक्षारूपी अमृतको कब खाऊँगा । भावार्थ-अनुमतित्यागी जो कुछ शुद्ध भोजन मिलता है उसे खाता है और इस प्रकार इच्छा करता है कि मुमुक्षुओंके द्वारा देहकी स्थितिके लिये भोजन और रत्नत्रयकी सिद्धिके लिये देह अपेक्षित होता है, किन्तु सावध कर्मसे मिले हुए अपने निमित्त बनाये गये आहारको खाने वाले मेरे वह धर्मकी सिद्धि कैसे होगी? १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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