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ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ १७
आगमादद्वैतसिद्धिर्भवेदिति मन्यमाने जैनाचार्या: दोषानारोपयन्ति । ।
हेतुना विनवागममात्रात्तत्सिद्धिरिति चेन्न, अद्वैततदागमयोतप्रसङ्गात् । यदि पुनरागमोप्यद्वयपुरुषस्वभाव एव न ततो व्यतिरिक्तो येन द्वैतमनुषज्यते इति मतम्, 'ऊर्द्धमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि तस्य' पर्वाणि यस्तं वेत्ति' स वेदवित् ।'
इति वचनात् तदा ब्रह्मवत्तदागमस्याप्यसिद्धत्वं स्यात्, सर्वथाप्यसिद्धस्वभावस्य सिद्धत्वविरोधात् सिद्धा सिद्धयोर्भेदप्रसक्तेः । तदेवं यदसिद्ध तन्न हितेप्सुभिरहितजिहासुभिर्वा प्रतिपत्तव्यम् । यथा शून्यतकान्तः तथा चासिद्धमद्वैतमिति । अत्र' नासिद्धो हेतुः, पुरुषाद्वैत
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_ [ आगम से अद्वैत को सिद्ध करने में भी जैनाचार्य दोषारोपण करते हैं। ] अद्वैतवादी-हेतु के बिना ही आगम मात्र से उस अद्वैत की सिद्धि हो जाती है।
जैन-ऐसा नहीं है, क्योंकि अद्वैत और उसका साधक आगम इन दो से द्वैत का ही प्रसंग आ जाता है।
अद्वैतवादी-आगम भी अद्वैत पुरुष का स्वभाव ही है उस ब्रह्म से भिन्न नहीं है जिससे कि द्वैत का प्रसंग आवे अर्थात् नहीं आता है । हमारा ऐसा मत है देखिये
श्लोकार्थ-ऊर्ध्वमूल-अन्त्य अवस्था-अद्वैत अवस्था ही जिसका मूल स्वरूप है, अधः शाखजिसकी पूर्वावस्था है ऐसा अश्वत्थ ब्रह्म अव्ययरूप है और छंद वेद ही जिसके पर्व हैं ऐसा वेदांती लोग कहते हैं ऐसे ब्रह्म को जो जानता है वही वेदवित् कहलाता है।
जैन-~यदि आपका ऐसा मत है तब तो ब्रह्म के समान वह आगम भी असिद्ध ही रहेगा क्योंकि चाहे आगम हो या ब्रह्म, किसी का भी हो, सर्वथा यदि असिद्ध स्वभाव है तब तो उसकी सिद्धि में विरोध आता है। यदि आगम को सिद्ध और ब्रह्मा को असिद्ध मानों तब तो सिद्ध, असिद्ध के भेद से द्वैत ही सिद्ध होगा न कि अद्वैत, "अतएव जो अनुमान अथवा आगम से असिद्ध है वह हितेच्छुओं के द्वारा अथवा अहित को छोड़ने की इच्छा रखने वालों के द्वारा प्राप्त करने योग्य नहीं है, जैसे शन्यत्वैकांत मत। उसी प्रकार से यह अद्वैत असिद्ध है। यहाँ पर "अद्वैतमसिद्ध अद्वैतत्वात्" यह हेतु असिद्ध भी नहीं है" क्योंकि आपका पुरुषाद्वैत अनुमान अथवा आगम से सिद्ध नहीं हो सकता है।
1 भिन्न: । दि० प्र० । 2 यस्य पर्णानि इति पा० । दि० प्र०। 3 वेद इति पा० । दि० प्र० । 4 यथा ब्रह्माद्वैतम सिद्धं तथा तदागमोप्यसिद्धः सर्वथाप्यसिद्धस्वभावस्य ब्रह्मणः सिद्धत्वं विरुद्धयते इत्युक्तवन्तं स्याद्वादिनमद्वैतवाद्याह तर्हि ब्रह्मांशेनासिद्धं तदागमांशेन सिद्धं भवतु । जन आह तहि सिद्धासिद्धयोर्भेदे सति स्वयमेव द्वैतप्रसंगः । दि० प्र० । 5 इत्यत्र । पाठान्तरम् । अनुमाने । दि० प्र०। 6 असिद्धत्वादिनि हेतुरसिद्धो न । अद्वैतं पक्षः। हितेप्सु. भिरहितजिहासुभिः प्रतिपत्तव्यं न भवतीति साध्यो धर्मोऽसिद्धत्वात् । यदसिद्धं तन्न हितेप्सुभिरहितजिहासुभिः प्रतिपत्तव्यम् । यथा शून्यकान्तः । असिद्धञ्चेदं तस्माद्धितेप्सुभिरहितजिहासुभिः न प्रतिपत्तव्यम् । दि० प्र० ।
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