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सम्पूर्ण प्रदेशों में भ्रमण करने के पश्चात् हस्तिनापुर आगमन से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में यहाँ राजा श्रेयांस को सात स्वप्न दिखाई दिये जिसमें प्रथम स्वप्न में सुदर्शनमेरु पर्वत दिखाई दिया। प्रातःकाल में ज्योतिषी को बुलाकर उन स्वप्नों का फल पूछा। तब बताया कि जिनका मेरुपर्वत पर अभिषेक हुआ है जो सुमेरु के समान महान हैं ऐसे तीर्थकर भगवान के दर्शन का लाभ प्राप्त होगा।
___ कुछ ही देर बाद भगवान् ऋषभदेव का हस्तिनापुर नगरी में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान् का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो गया। उन्हें आठ भव पूर्व का स्मरण हो आया। जब भगवान ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की अवस्था में व स्वयं राजा श्रेयांस राजा वज्रसंघ को पत्नी रानी श्रीमती की अवस्था में थे और उन्होंने चारण ऋद्धिधारी मनियों को नवधा भक्ति पूर्वक आहारदान दिया था। तभी राजा श्रेयांस समझ गये कि भगवान आहार के लिए निकले हैं।
यह ज्ञान होते ही वे अपने राजमहल के दरवाजे पर खड़े होकर मंगल वस्तुभों को हाथ में लेकर भगवान् का पड़गाहन करने लगे
हे स्वामी ! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु, अत्र तिष्ठ तिष्ठ......."। विधि मिलते ही भगवान् राजा श्रयांस के आगे खड़े हो गये। राजा श्रेयांस ने पुनः निवेदन किया-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार-जल शुद्ध है, भोजनशाला में प्रवेश कीजिये। चौके में ले जाकर पाद प्रक्षाल करके पूजन की एवं इक्षुरस का आहार दिया। आहार होते ही देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। चार प्रकार के दानों में से केवल आहार दान के अवसर पर ही पंचाश्चर्य वृष्टि होती है । भगवान् जैसे पात्र का लाभ मिलने पर उन राजा श्रेयांस की भोजनशाला में उस दिन भोजन अक्षय हो गया। शहर के सारे नर नारी भोजन कर गये तब भी भोजन जितना था उतना ही बना रहा।
एक वर्ष के उपवास के बाद हस्तिनापुर में जब भगवान् का प्रथम आहार हुआ तो समस्त पृथ्वीमंडल पर हस्तिनापुर के नाम की धम मच गई, सर्वत्र राजा श्रेयांस की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या से भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस का भव्य समारोह पूर्वक सन्मान किया। तथा प्रथम आहार की स्मृति में यहाँ एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया।
जिस समय राजा श्रेयांस भगवान् को आहार दे रहे थे उस समय राजा का हाथ ऊपर था एवं भगवान का हाथ नीचे था। दानी दातार का हाथ सदा ऊँचा रहता है। बरसने वाले बादल ऊँचे आसमान में रहते हैं और जल ग्रहण करने वाला समुद्र नीचे रहता है। जब तक बादल जल सहित होते हैं तब तक तो काले रहते हैं, जब जल का दान कर देते हैं तब श्वेत हो जाते हैं। दान के कारण ही भगवान् आदिनाथ के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं।
जिस दिन यहाँ प्रथम आहार दान हुआ वह दिन बैसाख सुदी तीज का था। तबसे आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में माना जाता है। अब उसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहते हैं।
इस प्रकार दान की परम्परा हस्तिनापुर से प्रारम्भ हुई । दान के कारण ही धर्म की परम्परा भी तबसे अब तक बराबर चली आ रही है। क्योंकि मन्दिरों का निर्माण, मूर्तियों का निर्माण,
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