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प्रतिषेध वाक्य के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ५८५ [वाक्यं प्रतिषेधमुखेनैव वस्तुतत्त्वं वक्तुं न शक्नोति । ] वाचः स्वभावोयं येन स्वार्थसामान्यं प्रतिपादयन्ती तदपरं 'निराकरोति, न पुनस्तदप्रतिपादयन्ती', 'स्वार्थसामान्यप्रतिपादनतदन्यनिराकरणयोरन्यतरापायेनुक्तानतिशायनात् । इदंतया नेदंतया वा न प्रतीयेत तदर्थः कूर्म रोमादिवत् । न खलु सामान्यं 'विशेषपरिहारेण विशेषो वा सामान्यपरिहारेण क्वचिदुपलभामहे। अनुपलभमानाश्च' कथं स्वं परं वा तथाभिनिवेशेन "विप्रलभामहे, विध्येकान्तवदन्यापोहैकान्तस्य प्रागेव व्यासेन निरस्तत्वात् । भूयोप्यन्यापोहवादिनमाशङ्कय निराकुर्वते,
[ वाक्य निषेध मुख से ही वस्तुतत्त्व का कथन नहीं कर सकते हैं । ] यह वचन का स्वभाव है कि जिससे वे अपने अर्थ सामान्य का प्रतिपादन करते हुये विवक्षित से इतर सभी का निषेध करते हैं। किन्तु अपने अर्थ का प्रतिपादन न करते हुये निषेध करते हैं ऐसा नहीं है क्योंकि स्वार्थ सामान्य का प्रतिपादन और उससे अन्य का निराकरण इन दोनों में से किसी एक का अभाव कर देने पर तो वे वचन अनुक्त का उल्लंघन नहीं कर सकेंगे अर्थात् वचनों का उच्चारण ही व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि स्व प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। अतः ये वचन नहीं बोले हुये वचन के समान ही रहेंगे। यह है अथवा यह नहीं है इस प्रकार से उन वचनों का अर्थ प्रतीति में नहीं आ सकेगा, कूर्म के रोमादि के समान । कहीं पर भी विशेष को छोड़कर सामान्य अथवा सामान्य को छोड़कर विशेष हमें प्राप्त नहीं होते हैं। और जो उपलब्ध ही नहीं होते हैं वे हमको अथवा पर को उस प्रकार के अभिप्राय से नहीं प्राप्त हो रहे हैं अर्थात् विशेष रहित सामान्य ही हैं अथवा सामान्य से रहित विशेष ही वस्तु का स्वरूप है इस प्रकार के एकांत आग्रह से विधि एकांत के समान ही अन्यापोह रूप एकांत का भी हमने पहले ही "कर्मापितद्वयाद्वैतं" इत्यादि कारिका में विस्तार से निरसन किया है।
उत्थानिका-पुनरपि अन्यापोहवादी को शंका को उठाकर आचार्यवर्य उसका निराकरण करते हैं
1 वाक्सती । ब्या० प्र० । 2 तस्मात् स्वार्थसामान्यादपरं परार्थसामान्यम् । ब्या० प्र० । 3 प्रतिपादयति । इति पा० । दि० प्र०। 4 का। ब्या०प्र०। 5 द्वयोरेकस्याप्यभावे वाक्यमनक्तं नातिशेते कोर्थोनूक्तसमं भवति । दि० प्र०। 6 तादक वाक्यं खपुष्पवदितिकारिकांशं व्याख्यान्ति न खल्विति । दि० प्र० । 7 अन्यव्यावृत्तिलक्षणो विशेषः । दि० प्र०। 8 वयं स्याद्वादिनो निरपेक्षं सामान्यं विशेष वा अपश्यन्तः सन्त आत्मानं परमन्यजनं वा एकान्तग्रहणेन कथं वञ्चयामः । दि० प्र०। 9 वयम् । ब्या० प्र०। 10 अन्तस्तत्त्वम् । दि० प्र०। 11 विप्रतिपत्ति कुर्महे । दि० प्र०।
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