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________________ ५८४ ] अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १११ कान्ताभावस्येष्टस्यानभिधानात्, तदभिधाने वा विध्येकान्तप्रतिपादन विरोधात् । न च मृषावाक्यैस्तत्त्वार्थदेशना युक्तिमती । इति 'कथमनयार्थदेशनम् । इत्येकान्ते वाक्यार्थानुपपत्तिरालक्ष्यते । प्रतिषेधमुखेनैवार्थ' वाक्यं नियमयतीत्येकान्तोपि न श्रेयानिति प्रतिपादयन्ति,-- 'वाक्स्वभावोन्यवागर्थप्रतिषेधनिरङ्कुशः । 'आह च स्वार्थसामान्यं तादृग् वाच्यं "खपुष्पवत् ॥१११॥ मिथ्या ही है। क्योंकि विधि के एकांत को स्वीकार करने पर तो आपके द्वारा इष्ट रूप प्रतिषेधैकांत का अभाव भी नहीं कहा जा सकता है। अर्थात् विधि को सिद्ध करने में प्रतिषेधैकांत का निषेध करना चाहिये परन्त विधि का एकांतवादी विधि वचन के द्वारा प्रतिषेध का निषेध करने में १ नहीं हो सकता है, केवल विधि वाक्य के द्वारा प्रतिषेध पक्ष का भी प्रतिषेध नहीं हो सकता है। अथवा उस प्रतिषेध कथन करने पर विधि के एकांत का प्रतिपादन करना विरुद्ध हो जाता है और मषा वचनों के द्वारा तत्त्वार्थ का उपदेश भी युक्ति-युक्त नहीं है। पुनः इस तत्त्वार्थ की देशना से पदार्थ का उपदेश भी कैसे हो सकेगा? इस प्रकार से एकांत में वाक्य और पदार्थ ही सिद्ध नहीं हो सकते हैं, ऐसा कहा गया है। उत्थानिका-अब प्रतिषेध रूप से ही वाक्य अर्थ का निश्चय कराते हैं यह एकांत भी श्रेयस्कर नहीं है, इस प्रकार से आचार्यवर्य प्रतिपादन करते हैं अन्य वचन के अर्थों के, प्रतिषेध हेतु निरअंकुश ही। निज सामान्य अर्थ को कहना, ऐसा वचन स्वभाव सही ।। किन्तू केवल निषेध मुख से, वचन स्वार्थ प्रतिपादक हैं। ऐसे वच से कथित वस्तु ही, गगनकमलवत् "असत्" रहे ।।१११।। कारिकार्थ-वचन का स्वभाव अन्य वचन के अर्थ का प्रतिषेध करने से निरंकुश है और वह परार्थ सामान्य निरपेक्ष अपने अर्थ सामान्य को कहता है । किन्तु 'केवल निषेध मुख से ही वचन अपने अर्थ को कहते हैं। ऐसा बौद्धों का कथन आकाश पुष्प के समान असत् है ॥११॥ 1 मृषाभारत्या । दि० प्र०। 2 हेतोः । व्या० प्र०। 3 ननु विधिमुखेनैव । दि० प्र० । 4 कर्तृ । ब्या० प्र० । 5 घटमानयेत्यादिवाक्यं केवलमभावेन पदार्थ निश्चाययति सौगताभ्युपगत इत्येकान्तोपि न श्रेयस्करः । इति श्रीस्वामिनः प्रतिपादयन्ति । दि० प्र० । 6 आत्मीयस्वरूपम् । ब्या० प्र० । 7 तो न्यवागर्थप्रतिषेधः निरंकुश एवास्तु न स्वार्थप्रतिपादक इत्यत आह । ब्या० प्र० । 8 तादृक् सौगताभ्युपगतमन्यापोहकथनं वाक्यं वपुष्पवच्छून्यं भवति । दि० प्र० । 9 ननु वस्तुनः सामान्यमेव रूपं विशेष एव वा ततश्चोभयस्वभावप्रतिपादनं कुतो यतस्तद्वाक् स्वभावो भवेदित्याह । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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