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अष्टसहस्री
[ द० प० कारिका १०८
'मिथ्यासमूहो 'मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा 'वस्तु तेर्थकृत् ॥ १०८ ॥
[ सुनयकुनययोर्लक्षणं । ]
सुनयदुर्णययोर्यथास्माभिर्लक्षणं व्याख्यातं तथा न चोद्यं न परिहारः, 'निरपेक्षाणामेव नयानां मिथ्यात्वात् तद्विषयसमूहस्य मिथ्यात्वोपगमात्, सापेक्षाणां तु 'सुनयत्वात्तद्विषयाणामर्थक्रियाकारित्वात्, तत्समूहस्य वस्तुत्वोपपत्तेः । तथा हि निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः, सापेक्षत्वमुपेक्षा, अन्यथा " प्रमाणनयाऽविशेषप्रसङ्गात्, "धर्मान्तरादानोपेक्षा
यदि मिथ्या एकांतों का, समुदाय हुआ वह मिथ्या ही । तब तो सदा हमारे मत में, वह मिथ्या एकांत नहीं ॥ नय निरपेक्ष कहे मिथ्या हैं, नय सापेक्ष कहे सम्यक् । सुनय अर्थक्रियाकारी हैं, उनका समुदय है सम्यक् ॥ १०८ ॥
कारिकार्थ - मिथ्याभूत एकांत का समुदाय यदि मिथ्यारूप ही है तब तो वह मिथ्या एकांत हम जैनियों के यहां नहीं है । हे भगवन् ! आपके मत में निरपेक्ष नय मिथ्या हैं और सापेक्ष नय वस्तु हैं, अर्थक्रियाकारी हैं । ।। १०८ ।।
[ सुनय और कुनय का लक्षण ]
सुन और दुर्णयों का जैसा हम लोगों ने लक्षण किया है उसमें न प्रश्न ही उठ सकते हैं, न परिहार की आवश्यकता ही है । निरपेक्ष नय ही मिथ्या हैं क्योंकि उनके विषय का समूह मिथ्यारूप स्वीकार किया गया है । किन्तु सापेक्षनय सुनय हैं क्योंकि उन्हीं नयों का विषय अर्थक्रियाकारी है । उनका समूह ही वस्तु रूप हो सकता है । तथाहि - विपरीत धर्म का निराकरण करना निरपेक्षत्व है। तथा उपेक्षा करना सापेक्षत्व है अर्थात् विचार के समय में विपरीत धर्मों की अपेक्षा नहीं है अतः उपेक्षा ही गौणता है । उससे विपरीत धर्म का निराकरण नहीं होता है वही सापेक्षत्व है । अन्यथा - यदि ऐसा न मानोगे तो प्रमाण और नय दोनों का विषय समान हो जायेगा । अर्थात् यदि सापेक्षत्व प्रत्यनीक धर्मों की उपेक्षा रूप न होंवे किन्तु प्रत्यनीक धर्म से सहित अथवा रहित रूप से ग्रहण करने वाला होवे तब तो प्रमाण और नयों का सकलरूप और विकलरूप से मानने का भेद ही सिद्ध न हो सकेगा। दोनों का विषय समान हो जायेगा ।
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1 नित्यानित्यास्तित्वनास्तित्वादिमिथ्याधर्माणां समूहः समुदायः 3 जैनानाम् । ब्या० प्र० । 4 कुतो यतः । ब्या० प्र० । 5 तत्त्वं यतोर्थक्रियाकारित्वादतो न तुबोधस्यावतारः । दि० प्र० । 7 निरपेक्षनय गृहीतार्थ कदम्बकस्य । दि० प्र० । 8 सापेक्षनयगृहीतार्थानाम् । दि० प्र० । 9 सापेक्षनयसमूहस्य । दि० प्र० । 10 कथं तेषां विशेषः । व्या० प्र० । 11 धर्मान्तरग्राहकं प्रमाणं धर्मान्तरापेक्षको नयः धर्मान्तरनिराकारको दुर्नय एवं प्रमाणनयदुनर्यानामन्यप्रकारो नास्ति । दि० प्र० ।
। दि० प्र० । 2 असत्यरूपा । दि० प्र० । परमार्थतत्त्वम् । ब्या० प्र० । 6 कुतः परमार्थ
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