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________________ स्याद्वाद का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५६६ मिति व्याख्याने, स्याद्वादः प्रमाणं सप्तभङ्गीवचनविधि गमादयो बहुविकल्पा नया इति संक्षेपतः प्रतिपादितं, विस्तरतोन्यत्र तत्प्ररूपणात् । इस प्रकार से स्याद्वाद नय से संस्कृत-तत्त्वज्ञान-प्रमाणनय से संस्कृत है ऐसा व्याख्यान स्वीकार करने पर सप्तभंगी वचन विधि रूप स्याद्वाद प्रमाण है और नैगम आदि बहुत से भेद प्रभेदों से युक्त नय हैं ऐसा संक्षेप से प्रतिपादित किया गया है। और इसको विस्तार से अन्यत्रश्लोकवातिकालंकार आदि ग्रंथ में प्रतिपादित किया है। सारांश स्याद्वाद का लक्षण-हे भगवन् ! आपके यहां "स्यात्" यह पद निपात सिद्ध है क्योंकि वाक्यों में अनेकांत का उद्योतक है एवं अपने अर्थ से रहित होने से अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण हैं। वाक्य का लक्षण -"परस्पर में आपेक्षित पदों का जो निरपेक्ष समुदाय है" उसे वाक्य कहते हैं। अन्य लोगों ने वाक्य के लक्षण अनेक प्रकार से किये हैं । यथा १. कोई आख्यात को वाक्य कहते हैं यह ठीक नहीं है क्योंकि वह पदांतर से निरपेक्ष पद है अन्यथा वह आख्यात नहीं रहेगा। २. कोई पदों के संघात को वाक्य कहते हैं उसमें भी प्रश्न होता है कि परस्परापेक्ष पदों का समुदाय संघात है या निरपेक्ष ? प्रथम पक्ष लेवो तो निराकांक्ष होने से हमारे ही मत की सिद्धि हो जाती है। यदि द्वितीय पक्ष लेवो तो बहुत से पुरुषों द्वारा उच्चारित पदों में भी वाक्य का लक्षण हो जावेगा। ३. जो कहते हैं कि "सघांतवर्तिनी जाति वाक्य है" उसमें भी निराकांक्ष परस्परापेक्ष पद सघांत वतिनी सदृश परिणाम लक्षण जाति को वाक्य मानना ठीक है निरपेक्ष को नहीं। ४. कोई कहते हैं कि “एक अवयवरहित निरंश शब्द वाक्य है" यह कथन अप्रमाण है। क्योंकि श्रोत्र ज्ञान से निरंश शब्द रूप वाक्य प्रतिभासित ही नहीं होता है। शब्द को एक, निरंश स्फोट रूप मीमांसक मानते हैं उसका अन्यत्र खण्डन विशेषतया किया गया है । ५. नैयायिक "क्रम को वाक्य कहते हैं तब तो "क, ख, ग, घ" इत्यादि वर्ण मात्र के क्रम को भी वाक्य मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा तो है नहीं । ६. 'बुद्धि को वाक्य कहने पर वह बुद्धिभाव वाक्य है या द्रव्य वाक्य ? प्रथम कल्पना तो हमें इष्ट ही है, दूसरी मानों तो प्रतीति से विरोध है। ७. "अनुसंहृती वाक्य है" इस मान्यता में भी उपर्युक्त अनुसंहृती रूप वाक्य मन में स्फुरित होता है वही भाव वाक्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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