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________________ अष्टसहस्री ५६८ ] [ द० ५० कारिका १०५ श्रुतस्यासर्वपर्यायविषयत्वव्यवस्थानमिष्यते, तच्चैवं विरुध्यते, इति सूत्रविरोधं मन्यते तदयुक्त, पर्यायापेक्षया तदनभिधानात् । 'एवं हि भगवतामभिप्रायोत्र ‘जीवादयः सप्त पदार्थास्तत्त्वं, 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वमिति वचनात् । तत्प्रतिपादनाविशेषात् स्याद्वादकेवलज्ञानयोः सर्वतत्त्वप्रकाशनत्वम्' इति, न विरोधः । यथैव 'ह्यागमः परस्म जीवादितत्त्वमशेषप्रतिपादयति तथा केवल्यपीति न विशेषः । साक्षादसाक्षाच्च तत्त्वपरिच्छित्तिनिबन्धनत्वात् तद्भदस्य । तदाह भेदः साक्षादसाक्षाच्चेति । साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायान् परिच्छिनत्ति नान्यत 'इति यावत् । न हि वचनात्तान्प्रकाशयति, समुत्पन्नकेवलोपि भगवान्, तेषां वचनागोचरत्वात् । तदेवं 'स्याद्वादनयसंस्कृतं तत्त्वज्ञानं प्रमाणनयसंस्कृत सभी द्रव्य और उनकी कुछ-कुछ पर्यायों को विषय करता है और वह सूत्र का कथन आपके वचनों से विरुद्ध हो जाता है, इसलिये सूत्र में विरोध आ जाता है। तमाधान-इस प्रकार से जो आप सूत्र का विरोध मानते हैं वह अयुक्त है। “सर्व तत्त्व प्रकाशने" यह कथन पर्याय की अपेक्षा से नहीं है । अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा आगम सर्व तत्त्व प्रकाशक है मतलब सवद्रव्य मात्र का प्रकाशक है न कि सर्व पयायो का प्रकाशक है। यहाँ पर भगवान समंतभद्र स्वामी का ऐसा अभिप्राय है कि "जीवादि सात तत्त्व पदार्थ हैं।" "जीवाजीवास्रवबंधसंवर. निर्जरामोक्षास्तत्वम्" जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। ऐसा सूत्र है। उन जीवादि सात तत्त्वों का प्रतिपादन समान होने से स्याद्वाद और केवलज्ञान को "सर्वतत्त्वप्रकाशक" कहा गया है। अतः कोई विरोध नहीं है। . जिस प्रकार से आगम पर जीवों को अशेष जीवादि तत्त्वों का प्रतिपादन करता है उसी प्रकार से केवली भी करते हैं इस प्रकार से उनमें कोई भेद नहीं है। उन दोनों में भेद तो केवलमात्र साक्षात् और असाक्षात् रूप से तत्त्व को जानने के निमित्त से ही है।" इसीलिये कारिका में कहा है कि "भेदः साक्षात् असाक्षाच्च" । केवली भगवान साक्षात्कार करके ही सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को जानते हैं। अन्य प्रकार से नहीं । अर्थात् आगम से नहीं जानते हैं ऐसा समझना। _जिनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे केवली भगवान भी आगम के वचनों से उन द्रव्य पर्यायों का प्रकाशन नहीं करते हैं क्योंकि केवलज्ञान के द्वारा जाने गये सूक्ष्मांतरित आदि पदार्थ वचनों के अगोचर ही हैं। 1 वक्ष्यमाणप्रकारेण । दि० प्र० । 2 सप्तपदार्था एव तत्त्वं ननु तत्पर्यायाः । दि० प्र० । 3 सूत्रकारकाणां स्वामिनाञ्च मते तस्य तत्त्वस्य प्रतिपादने विशेषाभावात् । दि० प्र० । 4 भावश्रुतमिति यावत् । ब्या० प्र० । 5 तद्वेदनस्य । इति पा० । दि० प्र० । 6 तथाह्यभेदः । इति पा० । दि० प्र० । 7 असाक्षात्कृतेः सर्वद्रव्यपर्यायान् न परिछिन्नतीत्यर्थः । दि० प्र० । 8 सर्वतत्त्वप्रकाशकस्याद्वादो यस्मात् । दि० प्र० । 9 प्रमाण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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