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________________ ५४२ ] [ द० १० कारिका १०१ I विशेषाभावात् । मानसप्रत्यक्षेपि 'चक्षुरादिज्ञानानन्तरप्रत्ययोद्भवेन' कश्चिद्विशेषः क्रमवृत्तौ चक्षुरादिज्ञानवद्र व्यवधान प्रतिभासविकल्प'प्रतिपत्तेरसंभवात् । न च चक्षुरादिज्ञानपञ्चकात्सहभाविनः " क्रमभुवां तदनन्तरजन्मनां मानसप्रत्यक्षाणां व्यवधानेन प्रतिभासभेदप्रतिपत्तिरस्ति । तेषां लघुवृत्तेः क्रमभावित्वेपि न व्यवधानेन प्रतिभासविकल्पानां प्रतिपत्तिरिति चेत्तत एवं चक्षुरादिज्ञानानामपि विच्छेदोपलक्षणं मा भूत्, क्रमभावेपि विशेषाभावात् । यौगपद्ये हि स्पर्शादिप्रत्यवमर्श विरोधः पुरुषान्तरवत् । जैनानामपि क्रमभावश्चक्षुरादिवेदनानामुपपन्न एव । "तद्वन्मत्यादिज्ञानानामपि 12 सोपयोगानां क्रमभावो निरुपयोगानां तु योगपद्यमविरुद्ध, विषयस्यानेकान्तात्मकत्वात् । ततः सोपयोगं मतिज्ञानादि क्रमभावि स्याद्वाद - अष्टसहस्री मानस प्रत्यक्ष में भी चक्षु आदि ज्ञान के अनन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होने से क्रमवर्ती में कोई विशेष है चक्षु आदि ज्ञान के समान । क्योंकि व्यवधान प्रतिभास का विकल्पज्ञान संभव नहीं है । चक्षु आदि ज्ञान पंचक सहभावी हैं उसके अनन्तर होने वाले मानस प्रत्यक्ष क्रम भावी हैं । उस इन्द्रियों के ज्ञानपंचक से मानस प्रत्यक्ष में व्यवधान होने से ( अन्तराल से ) प्रतिभास भेद का ज्ञान नहीं होता है । शंका- अनेक भी मानस प्रत्यक्षों का क्रम से उत्पाद होने पर भी शीघ्र शीघ्रतया उत्पाद होने से लघुवृत्ति है अतएव उस लघुवृत्ति से क्रमभावी होने पर भी उन प्रतिभास भेदों में व्यवधान का ज्ञान नहीं है । जैन - यदि ऐसी बात है तब तो उसी हेतु से ही पुनः चक्षु आदि ज्ञानों में भी विच्छेद क्रम की उपलब्धि नहीं होवे क्योंकि क्रम से होने पर भी लघुवृत्ति रूप से दोनों जगह कोई अन्तर नहीं है अर्थात् चक्षु आदि पांचों इन्द्रियों के ज्ञान क्रम से होते हैं किन्तु लघुवृत्ति से वह क्रम जाना नहीं जाता है। ऐसा ही मानना उचित है, किन्तु युगपद् मानने पर तो स्पर्शादि के प्रत्यवमर्श अर्थात् एकत्त्व प्रत्यभिज्ञान का विरोध हो जावेगा भिन्न पुरुष के समान । इस प्रकार से हम जैनों के यहां भी चक्षु आदि ज्ञान पंचकों में क्रमभाव व्यवस्थित ही है । उसी प्रकार से उपयोग सहित मति आदि ज्ञान भी क्रमभावी हैं एवं उपयोगरहित अवस्था में युगपत् होते हैं यह बात अविरुद्ध है क्योंकि इनका विषय अनेकांतात्मक ही है । अर्थात् मति आदि ज्ञानों का स्वरूप ही उसके वर्णन करने में विषय कहलाता है एवं लब्धि और उपयोगादि की अपेक्षा से वह विषय अनेकांतात्मक है । इसलिये उपयोग सहित 1 एव । कारण । दि० प्र० । 2 कारणोत्पन्ने । दि० प्र० । 3 भा । ब्या० प्र० । 4 भेद । व्या० प्र० । 5 अल्पकालत्वात् । ब्या० प्र० । 6 सहकारिकारणभूतात् । दि० प्र० । 7 आच्छादनेन । दि० प्र० । 8 भाष्यद्वयं भावयति । दि० प्र० । 9 अनन्तरप्रत्ययभूतचक्षुरादिज्ञानपञ्चकात् । व्या० प्र० । 10 लघुवृत्तेः । दि० प्र० । 11 प्रमाणसिद्धः । दि० प्र० । 12 व्यापारसहितानाम् । स्वकीयस्वकीयार्थग्राहकाणाम् । दि० प्र० भाव उत्पन्नो यतः । दि० प्र० । 13 क्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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