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________________ प्रमाण का स्वरूप ] तृतीय भाग [ ५४१ 'तद्वचनमिति चेन्नवं विशेषानभिधानात् । सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते इति न्यायात् तद्विशेषगतिरिति चेन्न, अन्यथापि विशेषगतिसंभवात् तन्नेवेति, प्रमाणाभावात् । 'क्वचिदात्मनि मत्यादिज्ञानानि सोपयोगानि युगपत्संभवन्ति सकृत्सन्निहितस्वविषयत्वात् दीर्घशकुलीभक्षणादौ “चक्षुरादिज्ञानपञ्चकवदित्यनुमानादिष्टविशेषगतिरस्तु । न चेदमुदाहरणं 'साध्यविकलं चक्षुरादिज्ञानानां क्रमवृत्तौ परस्परव्यवधानाद्विच्छेदोपलक्षणप्रसङ्गात्, प्रसिद्धक्रमभाविरूपादिज्ञानव'दिति न मन्तव्यं, चक्षुरादिज्ञानपञ्चकस्यापि परस्परव्यवधानेपि विच्छेदानुपलक्षणं, क्षणक्षयवत् ताथागतस्य, स्यात् । तेषां योगपद्ये हि संतानभेदात् परस्परपरामर्शाभावः सन्तानान्तरवत् । यौगपद्येपि संतानभेदाभावेऽक्षमनोध्यक्षयोरपि यौगपद्यमस्तु जैन-नहीं । अन्यथा रूप से भी विशेष का ज्ञान संभव है कि वे नहीं हैं इत्यादि क्योंकि प्रमाण का अभाव है। बौद्ध-"किसी संसारी आत्मा में मति आदि ज्ञान उपयोग सहित (व्यापार सहित) युगपत् सम्भव हैं क्योंकि एक साथ सन्निहित स्वविषय को ग्रहण करते हैं जैसे कि दीर्घ शष्कुली-मोटी पूड़ी के खाने में चक्षु आदि पांचों इन्द्रियों के पांच ज्ञान एक साथ सम्भव हैं ।" इस अनुमान से इष्ट विशेष का ज्ञान हो जावे क्या बाधा है ? हमारा यह उदाहरण साध्य विकल भी नहीं है । चक्षु आदि ज्ञानों को क्रम से मानने पर परस्पर में व्यवधान हो जाने से विच्छेद का प्रसंग आ जावेगा जैसे कि क्रम से होने वाले प्रसिद्ध रूपादि ज्ञान क्रम से ही होते हैं। जैन-ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि चक्षु आदि इंद्रियों के ज्ञान पंचक में भी परस्पर में कालकृत व्यवधान के होने पर भी क्रम की उपलब्धि नहीं होगी। क्षणक्षय ही आप बौद्धों के यहां पुनः यह दोष भी आ जावेगा। उन चक्षु आदि ज्ञानों को युगपत् स्वीकार करने पर रूपज्ञान, रसज्ञान आदि के संतान भेद से परस्पर में परामर्श-एकत्व का अभाव है भिन्न संतान के समान । उन चक्षु आदि ज्ञान पंचक को यदि आप सौगत युगपत् स्वीकार करके भी उनमें संतान भेद का अभाव मानेंगे तब तो इंद्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष भी युगपत् हो जावें कोई अन्तर नहीं है किन्तु आपने तो इन्हें क्रम से हो माना है। 1 युगपद्भावि । दि. प्र.। 2 वाक्यानि । दि० प्र० । 3 छद्मस्थज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणविशेषः । ब्या० प्र० । 4 छद्मस्थज्ञानदर्शनयोर्युगपढयापाराभावः। इष्टविशेष: । ब्या० प्र०। 5 अत्राह परः हे स्याद्वादिन् ! इदं तव णं साध्यशन्यमस्ति कथमित्युक्त अनुमानमाह चक्षरादिज्ञानानि पक्षः युगपन्न भवन्तीति साध्यो धर्मः क्रमवृत्तौ परस्परव्यवधानाल्लोकविख्यातक्रमभाविरूपादिज्ञानानि यथा। दि० प्र०। 6 साध्यं हि नाम योगपद्यम् । ब्या० प्र०। 7 क्षणक्षयस्यानुभूतस्यापि विच्छेदानुपलक्षणं यथाऽन्यथा तदनुमानवैफल्यप्रसंगात् । क्षणानां क्षयोनुक्रमभावी भवति तथापि विच्छेदो नोपलक्ष्यते कालस्यातीवसूक्ष्मत्वान्नीलोत्पलदलनिच येपि न सूचीनिक्षेपवत् । ब्या० प्र० । 8 य एवामद्राक्षं स एवाहं स्पृशामीति । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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